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संत श्री ज्ञानेश्वरजी महाराज विरचित:श्री ज्ञानेश्वरी16 अध्याय6
  • 151173860 - ARUN KUMAR NAGPAL 0 0
    01 Jul 2025 23:01 PM



तेजस्वी होनेपर भी कोमल तथा शीतल होता है, यही सत्य है। जब ऐसी औषधि कहीं न मिलती हो, जिसके दर्शनमात्रसे ही व्याधिका निवारण हो जाता है और जो स्वादमें कटु भी न लगे, तो फिर ऐसी वस्तु भला कहाँसे मिल सकती है, जिसके साथ सत्यकी सटीक उपमा दी जा सके ? पर यदि जलका छींटा नेत्रपर डाला जाय, तो वह अपनी कोमलताके कारण नेत्रको जरा-सा भी क्लेश नहीं पहुँचाता, पर वही जल पर्वतोंको भी तोड़कर अपना रास्ता प्रशस्त ही कर लेता है। ठीक इसी प्रकार भ्रम और मोहको तोड़नेके लिये जो लौह-सदृश कठोर होता है, पर श्रवणेन्द्रियोंको माधुर्यसे भी मधुर लगता है, जिसे श्रवणके समय ऐसा प्रतीत होता है कि कर्णको मानो मुख निकलते जा रहे हैं, पर जो अपनी सत्यताकी सामर्थ्यसे ब्रह्मतत्त्वका भी स्पष्टीकरण करता है, आशय यह कि जो प्रिय और मधुर होनेपर भी किसीकी वंचना नहीं करता तथा सत्य होनेपर भी किसीको बुरा नहीं लगता, नहीं तो शिकारीका गाना श्रवणेन्द्रियोंको तो मधुर लगता है, पर हरिणीके लिये यह जानलेवा साबित होता है अथवा अग्नि अपना शुद्धिकरणका काम तो ठीक तरह करती है, परन्तु ऐसा करते समय वह जलाकर भस्म भी कर देती है-ठीक इसी प्रकार जो वाणी श्रवणेन्द्रियोंको तो मधुर लगती है, पर अपने अर्थसे हृदयको विदीर्ण भी कर देती है, उसे कभी सुन्दर नहीं कहा जा सकता। उसे तो राक्षसी ही कहना उचित है। परन्तु बालकके अपराध करनेपर जो ऊपरसे तो क्रोध प्रदर्शित करती है किन्तु इसका लालन-पालन करनेमें जो पुष्पसे भी अधिक मृदु होती है, उस माताके स्वरूपकी तरह जो वचन कर्णप्रिय न होनेपर भी अन्ततः ठीक और अच्छा सिद्ध होता है तथा जो बुरे विकारोंसे लिप्त नहीं होता है, उस वचनको ही इस सन्दर्भमें सत्य जानना चाहिये। पाषाणमें चाहे कितना ही जल क्यों न डाला जाय, किन्तु उसमें कभी अंकुर प्रस्फुटित नहीं होता अथवा माड़को चाहे कितना ही क्यों न मथा जाय, पर उसमेंसे कभी मक्खननहीं निकलता अथवा यदि सर्पकी केंचुलीपर चरण प्रहार किया जाय तो भी वह केंचुली जैसे कभी काटनेके लिये नहीं दौडती अथवा वसन्तकाल होनेपर भी आकाशमें जैसे कभी फल नहीं लगते अथवा रम्भाके सौन्दर्यको देखकर भी शुकदेवजीके मनमें जैसे कभी कामवासनाका संचार नहीं हुआ था अथवा जो अग्नि एकदम शान्त हो जाती है, वह जैसे घृत डालनेसे पुनः नहीं जलती, ठीक वैसे ही यदि कितनी ही इस प्रकारकी बातें क्यों न कहें जिन्हें श्रवण करते ही अनजान बालक भी क्रोधाविष्ट हो जाय, तो भी हे अर्जुन ! जैसे स्वयं ब्रह्मदेवके पैरोंपर पड़नेसे भी मृत व्यक्ति जीवन धारण नहीं कर सकता, ठीक वैसे ही मनकी जो अवस्था होती है तथा जिसमें क्रोध कभी उत्पन्न ही नहीं होता, उसीको 'अक्रोध' नामसे सम्बोधित करते हैं।" इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे यही सब बातें उस समय कही थीl

तदनन्तर भगवान् लक्ष्मीपति कहते हैं- " अब यदि मृत्तिकाका परित्याग कर दिया जाय तो घड़ेका, सूतका परित्याग कर दिया जाय तो वस्त्रका, बीजका परित्याग कर दिया जाय तो वृक्षका, दीवारका परित्याग कर दिया जाय तो सारे चित्रका, निद्राका परित्याग कर दिया जाय तो उसमें दृष्टिगोचर होनेवाले सारे स्वप्न-जालका, जलका परित्याग कर दिया जाय तो तरंगोंका, वर्षाकालका परित्याग कर दिया जाय तो मेघोंका तथा धनका परित्याग कर दिया जाय तो विषय-भोगोंका स्वतः परित्याग हो जाता है। ठीक इसी प्रकार बुद्धिमान् लोग देहात्मबुद्धिका परित्याग कर समस्त प्रपंचात्मक विषयोंको दूर भगा देनेको ही त्याग-नामसे पुकारते हैं।" यह बात सुनकर परम सौभाग्यशाली अर्जुनने कहा- "हे देव! अब आप मुझे शान्तिका लक्षण स्पष्टरूपसे बतलावें।" तब भगवान्ने कहा - "बहुत अच्छा, तुमने बहुत ही सुन्दर बात पूछी है, सो सुनो। ज्ञेयको नष्ट करके जब ज्ञाता और ज्ञान भी लयको प्राप्त हो जाते हैं, तब जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसीको लोग 'शान्ति' कहते हैं। जैसे प्रलयकालका जल सारे विश्वकोजलमग्न कर विश्वका नामोनिशान भी मिटा देता है और चतुर्दिक केवल जल-ही-जल रहता है तथा इस प्रकारका भेद-दर्शक भाषा व्यवहारमें हो ही नहीं सकता कि यह नदीका उद्गम है, यह प्रवाह है और यह समुद्र है और जिधर दृष्टि डालो, उधर एक-सा जल ही फैला हुआ दृष्टिगत होता है, पर उस समय भी क्या उसका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उससे भिन्न कोई रहता है? कोई नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार जिस समय ज्ञेयके साथ आलिंगन होनेपर तन्मयता हो जाती है, उस समय ज्ञातृत्वका भी नामोनिशान मिट जाता है। फिर जो कुछ अवशिष्ट रह जाता है, हे किरीटी ! उसीका नाम 'शान्ति' है। अब मैं तुम्हें अपैशुन्यके बारेमें बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। जिस समय व्याधिग्रस्त व्यक्ति किसी व्याधिसे अत्यधिक क्लेश पाता है, उस समय उसे व्याधिमुक्त करनेकी चिन्तामें चतुर वैद्य यह नहीं देखता कि यह मेरा शत्रु है अथवा जब दलदलमें फँसी हुई गाय दिखायी देती है, तब देखनेवाला इस बातका विचार नहीं करता कि वह दूध देती है अथवा नहीं और वह उस गायका दुःख देखकर ही व्याकुल हो जाता है अथवा जिस समय कोई व्यक्ति जलाशयमें डूबने लगता है, उस समय सुविज्ञ व्यक्ति यह नहीं सोचता कि यह ब्राह्मण है अथवा अन्त्यज है और यही समझता है कि इसके प्राण बचाना ही मेरा कर्तव्य है अथवा जिस समय कोई चाण्डाल दैवयोगसे वनमें मिलनेवाली स्त्रीको निर्वस्त्र करके तथा उसके कपड़े छीनकर उसे छोड़ देता है, उस समय सभ्य व्यक्ति तबतक उस स्त्रीपर दृष्टि नहीं डालता, जबतक वह उसे फिरसे वस्त्र नहीं पहना लेता। ठीक इसी प्रकार जो व्यक्ति अज्ञान और भ्रम इत्यादिके कारण अथवा पूर्व जन्मार्जित कर्मोंके कारण समस्त प्रकारके निन्दनीय मार्गोंमें लगे रहते हैं, उन्हें ये अपना शारीरिक शक्ति प्रदान कर उन्हें सालनेवाले दुःखोंको विस्मृत करा देते हैं। हे पार्थ ! दूसरेके दोषोंको पहले अपनी दृष्टिसे दूर करके तब ये उन्हें अच्छी तरह देखने लगते हैं। जैसे सर्वप्रथम देवताकी पूजा-अर्चना करके तब उनकाध्यान किया जाता है अथवा सबसे पहले खेत जोतकर तथा उसमें बीज बोकर तब उनकी रखवाली करने जाते हैं अथवा अतिथिको सर्वप्रथम आदर-सत्कारसे सन्तुष्ट करके तब उसका आशीर्वाद लिया जाता है, ठीक वैसे ही सर्वप्रथम अपने गुणोंसे दूसरोंकी त्रुटियाँ पूरी करनी चाहिये और तब उसकी ओर सूक्ष्म दृष्टिसे देखना चाहिये। सिर्फ यही नहीं, वे कभी किसीके मर्मपर आघात नहीं करते, कभी किसीको कुकर्मोंमें प्रवृत्त नहीं करते और कभी किसीको दोष नहीं लगाते। बस उनका आचरण अथवा व्यवहार इसी प्रकारका होता है। इसके अलावा उनका व्यवहार इस प्रकारका होता है कि यदि किसीका पतन हो गया हो, तो वे किसी-न-किसी उपायसे उसे सँभाल लेते हैं; परन्तु किसीको मर्माहत करनेका विचार उनके मनमें कभी आता ही नहीं। आशय यह कि हे पार्थ, बड़ोंके लिये वे कभी दूसरोंको तुच्छ समझने अथवा बनानेके लिये तैयार नहीं होते और न उनकी दृष्टि कभी दूसरोंके दोषकी तलाश ही करती है। हे अर्जुन ! इसी प्रकारके व्यवहारका नाम 'अपैशुन्य' है; निःसन्देह मोक्षमार्गपर यह एक विश्रान्तिका प्रमुख स्थान है।

अब मैं तुम्हें दयाके सम्बन्धमें बतलाता हूँ, सुनो। जैसे पूर्णिमाकी चन्द्रप्रभा सारे जगत्को एक समान शीतलता प्रदान करती है और इस प्रकारका पंक्तिभेद कभी नहीं करती कि यह बड़ा है वह छोटा है, वैसे ही जिनमें दया भरी होती है, वे दुःखी जनोंके दुःखोंका दयालुतापूर्वक परिहार करते समय कभी यह नहीं सोचते कि यह अधम है और वह उत्तम है। देखो, जगत्में जल-जैसा पदार्थ भी स्वयं विनष्ट हो जाता है; पर मरती हुई वनस्पतियोंको वह हरा-भरा कर देता है। ठीक इसी प्रकार दयालु व्यक्तिके मनमें दूसरे व्यक्तियोंके दुःखको देखकर करुणाका इतना प्राबल्य होता है कि उनके दुःखोंका निवारण करनेके लिये यदि वे अपना सब कुछ दाँवपर लगा दें तो वह उन्हें अत्यल्प ही जान पड़ता है। जब प्रवाहमान जलको रास्तेमें कोई गड्ढा इत्यादि मिलता है, तब वह उसे



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