अध्याय सोलहवाँ
विश्वाभासको नष्ट करके अद्वैतरूपी कमलको प्रस्फुटित करनेवाला श्रीसद्गुरुरूपी यह जो अद्भुत सूर्य उदित हुआ है, अब मैं इसकी वन्दना करता हूँ। जो सूर्य अविद्यारूपी रात्रिका अवसान करके तथा ज्ञान-अज्ञानरूपी प्रकाशको विनष्ट करके ज्ञानी व्यक्तियोंको आत्मबोधरूपी शुभ दिन दिखलाता है, जिस सूर्यका उदय होते ही जीवरूपी पक्षियोंको आत्मज्ञानकी दृष्टि प्राप्त होती है और वे शरीररूपी घोंसला त्यागकर बाहर निकल जाते हैं, जिस सूर्यके प्रभावसे वासनात्मक देहरूपी कमलकोशमें आबद्ध चैतन्यरूपी भ्रमर एकदमसे बन्धनपाशसे मुक्त हो जाता है, भेद-भावनारूपी नदीके दोनों तटोंपर शब्दोंके झंझटोंमें फँसकर तथा पारस्परिक वियोगके कारण विक्षिप्त होकर आक्रोश करनेवाले बुद्धिरूपी चक्रवाक पक्षियोंके युग्मको पूर्ण एकताका लाभ करा देता है, जो सूर्य चैतन्याकाशको ठीक वैसे ही प्रकाशित करता है, जैसे दीपक घरको प्रकाशित करता है, जिस सूर्यके उदित होते ही भेद-बुद्धिका अन्धकारपूर्ण चोरीका समय समाप्त हो जाता है तथा योगमार्गके यात्री आत्म-प्रत्ययके मार्गपर कदम बढ़ाने लगते हैं, जिस सूर्यकी विवेक-रश्मियोंका स्पर्श होते ही ज्ञानरूपी सूर्यकान्त-मणिसे तेजकी चिनगारियाँ निकलकर संसाररूपी जंगलको जलाकर राख कर देती हैं, जिस सूर्यके किरण-जालसे प्रखर होकर आत्मस्वरूपकी भूमिपर स्थिर होते ही महासिद्धिरूपी मृगजलकी बाढ़ आ जाती है, पर तदनन्तर जो सूर्य आत्मबोधरूपी मस्तकपर पहुँचकर ब्रह्मभावके मध्याह्नकालमें तपने लगता है तथा जिसके इस प्रकार तपनेसे आत्माकी भ्रान्तिरूपी छायाउसीके नीचे दबकर छिप जाती है और उस समय वहाँ मायारूपी रात्रि ही न होनेके कारण विश्वके भास और विपरीत ज्ञानकी निद्राका कोई आश्रय ही नहीं मिलता और इसलिये अद्वैत ज्ञानरूपी नगरमें चतुर्दिक आनन्द-ही-आनन्द छा जाता है और सुखानुभवके लेन-देनकी मन्दी हो जाती है, आशय यह कि जिस सूर्यके प्रकाशसे ऐसे कैवल्य मुक्तिरूपी शुभ दिनका अनवरत लाभ होता है, जो सूर्य आत्मभावरूपी आकाशका अधिपति है, जो सूर्य उदित होते ही पूर्व इत्यादि दसों दिशाओंके सहित उदय और अस्तका भी नाश कर देता है, जो ज्ञान-अज्ञान दोनोंका अन्त करके उनमें छिपा हुआ आत्मतत्त्व प्रकट कर देता है, किंबहुना, इस प्रकार जो सूर्य एक विलक्षण और नूतन प्रभाव लाकर खड़ा कर देता है, अहर्निशके प्रान्तोंके उस पार रहनेवाले उस ज्ञान-सूर्यकी ओर दृष्टि डालनेमें भला कौन सक्षम हो सकता है? जो प्रकाश्य वस्तुओंके बिना ही प्रकाशपुंज है, उन ज्ञान-सूर्य श्रीनिवृत्तिनाथकी मैं बारम्बार वन्दना करता हूँ, क्योंकि यदि मैं शब्दोंके द्वारा उनकी स्तुति करने लगूँ तो मुझे अपनी वाग्-दौर्बल्यताका ही पता चलता है। देवकी स्तुति तो ठीक-ठीक तभी की जा सकती है, जब उनकी महिमा चित्तमें अच्छी तरहसे चित्रित हो तथा जिस वस्तुकी स्तुति की जाय, वह वस्तु और बुद्धि दोनों एक साथ मिलकर एक जीव हो जाय। जिसका ज्ञान उसी समय होता है, जब कि नामरूपवाले वस्तुओंका ज्ञान समूल विनष्ट हो जाय, जिसका विवेचन मौनके आलिंगनमें ही हो सकता है और जिसका पता स्वयं लयको मिलनेवाले जीवको ही अनुभवसे चलता है, जिन गुरुदेवके लक्षण कहते-कहते परा वाणीके सहित वैखरी वाणी भी पश्यन्ती और मध्यमा वाणियोंके गर्भमें प्रविष्ट होकर वहीं लयको प्राप्त हो जाती है, उन आप गुरुराजको मैं अपने अन्तःकरणमें स्वयं सेवक-भावकी परिकल्पना करके शाब्दिक स्तोत्रके साजसे सुसज्जित कर रहा हूँ।
