भले ही पार कर गयी 50 को मैं
चेहरे पर नूर है
हल्का सा गुरुर है
नही करती अब परवाह मैं
किसी के भी तानों की, उल्हानो की
वो दिन अब लद गये
जब आँखों के कोने पानी था
छुप कर् के मैं रोती थी
होठों पर ले नकली मुस्कान
अब रहती हूँ मस्त अपने में
निहारती हूँ खुद को , सँवारती हूँ खुद को देख आईने में
भजन भी मैं गाती हूँ तो गजल भी मै गाती हूँ
जरूरत नही मुझे रिझाने की अब सजन को
नजर मुझे आता है आँखों में उनकी अपना अक्स
मेरे बिन कहे पढ़ लेते वो मेरी जुबाँ
काम वो करती हूँ मैं जो मुझे भाता है
कलम भी चलाती हूँ तो कड़छी भी चलाती हूँ
पार्लर भी जाती हूँ तो मंदिर भी जाती हूँ
बगियाँ मे देख तितली बच्चो सी मचल जाती हूँ
सब कुछ होते भी कमी महसूस करती हूँ
अपने दिल के टुकड़ों की
बात उनसे करके कुछ पल , हो लेती हूँ खुश हु
देख कर खुश उनको भूल जाती हूँ गम अपने
50 के पार करके मैं जीवन की नयी पारी खेल रही है
जीवन के एक एक पल को जी रही है
जो नही कर पायी अभी तक
वो सब कर रही है
*50 को पार करने का गम नही है
55 पार का पुरुष
1.
बाजारवाद के दौर में
खोजता है
चिड़िया के नीड़ भर नभ
भले ही खाली हो जेब
मगर रिश्तों से भरा हो सब
जहां वो स्वतंत्रता से रचा बसा हो
हर भोर खिलखिलाकर हंसा हो
2.
उस पुरुष को पता है
जिम्मेदारियों का बांझपन
बालपन का खालीपन
वो खोजता महल नहीं बस चाहता छत
एक छोटा सा अपनेपन का घर।
3.
इस अधूरेपन का एहसास
जैसे प्रांगण पड़ा पायदान
उससे भलीभांति परिचित है मालिक सा
कुछ अपना कुछ पराया
कुछ भरता हुआ किराया
जिधर ढलती सांझ के
साथ बन बैठता है रूखा सूखा
एक पंछी 55 वर्ष का भूखा।
151168597 राजेश् शिवहरे कंट्री ब्यूरो चीफ मैगजीन
