फ़ास्ट न्यूज़ इंडिया लगभग पांच सालों में पहली मर्तबा, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने ब्याज दरों पर ध्यान केंद्रित करते हुए सर्वसम्मति से मानक रेपो दर को 6.50 फीसदी से घटाकर 6.25 फीसदी करने का फैसला लिया। यह कदम, तटस्थ रुख बनाए रखते हुए, पिछली द्विमासिक समीक्षा के बरक्स एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है, जहां समिति ने 4:2 के मत के साथ यथास्थिति बनाए रखने का विकल्प चुना था। उस वक्त, एमपीसी अक्टूबर में 6.2 फीसदी की मुद्रास्फीति के 15 महीने के उच्चतम स्तर और दूसरी तिमाही में 5.4 फीसदी की जीडीपी की सुस्त रफ्तार से जूझ रही थी। अब, जबकि दिसंबर में मुद्रास्फीति घटकर 5.2 फीसदी हो गई है, जोकि अभी भी आरबीआई के चार फीसदी लक्ष्य से ऊपर ही है और 2024-25 के लिए विकास का अनुमान लुढ़ककर चार साल के निचले स्तर 6.4 फीसदी पर आ गया है, केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के बरक्स आर्थिक विस्तार को तवज्जो देता नजर रहा है। आरबीआई के गवर्नर संजय मल्होत्रा ने अपनी पहली नीतिगत समीक्षा में वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताओं से पैदा हुई चुनौतियों पर प्रकाश डाला। इन चुनौतियों में रुकी हुई अवस्फीति, संयुक्त राज्य अमेरिका में दरों में कटौती की कम होती संभावनाएं और मजबूत डॉलर के कारण उभरते बाजारों और रुपये सहित उनकी मुद्राओं पर दबाव शामिल है। इन कारकों ने भारत के लिए नीतिगत मसले को जटिल बना दिया है, जिससे विकास को समर्थन देने का पक्ष और भी मजबूत हो गया है। एमपीसी ने इन उम्मीदों का हवाला देते हुए वर्तमान मुद्रास्फीति संबंधी चिंताओं से इतर देखने के अपने फैसले को मुनासिब ठहराया है कि कीमतों का दबाव और भी कम हो जाएगा तथा मुद्रास्फीति इस साल के 4.8 फीसदी से घटकर 2025-26 के दौरान औसतन 4.2 फीसदी होने का अनुमान है। यह नजरिया अनुकूल खाद्य मुद्रास्फीति के हालात, सामान्य मानसून और ऐतिहासिक रूप से मूल्य वृद्धि में प्रमुख योगदानकर्ता मानी जाने वाली टमाटर, प्याज एवं आलू जैसी प्रमुख सब्जियों की बंपर फसल की धारणा पर आधारित है। भले ही मुद्रास्फीति चिंता का एक सबब बनी हुई है, लेकिन समिति ने संकेत दिया है कि कमजोर आर्थिक विकास, विशेष रूप से दूसरी तिमाही की मंदी और उसके बाद से सुधार के सीमित संकेतों के मद्देनजर, कहीं ज्यादा दबाव बढ़ाने वाला है। आरबीआई का बजट के बाद का नीतिगत रुख राजकोषीय नीति के साथ घनिष्ठ तालमेल का भी संकेत देता है, जोकि स्पष्ट रूप से मौद्रिक और राजकोषीय उपायों को एक-दूसरे से जुदा मकसदों के बजाय मिलकर काम करने के सरकार के आहवान के अनुरूप है। बहरहाल बजट के प्रोत्साहन संबंधी उपायों का दरों में कटौती के साथ मिलकर उपभोग को वापस पटरी पर लाना, निजी निवेश को आकर्षित करना और विकास को बढ़ावा दे पाना अनिश्चित बना हुआ है। दिलचस्प बात यह है कि अगर एमपीसी की बैठक एक सप्ताह बाद होती, तो जनवरी में मुद्रास्फीति के कम होकर लगभग 4.5 फीसदी तक आ सकने के मद्देनजर दरों में कटौती के लिए उसके पास अतिरिक्त तर्क होता। नए गवर्नर और मौद्रिक नीति की देखरेख करने वाले डिप्टी गवर्नर की आगामी नियुक्ति के साथ, आरबीआई मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़ों को शामिल करने के लिए एमपीसी के समीक्षा कार्यक्रम को उसी हिसाब से निर्धारित करने पर विचार कर सकता है। इसकी द्विमासिक बैठकों के समय में हल्का सा बदलाव मौद्रिक नीति को अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदनशील और डेटा-संचालित बना सकता है, जिससे वास्तविक समय के आर्थिक संकेतकों के साथ अपने रुख को सही ठहराने की समिति की क्षमता में इजाफा होगा।
