फ़ास्ट न्यूज़ इंडिया बीते दिसंबर में चेन्नई के अन्ना विश्वविद्यालय में हुए बलात्कार से जुड़ी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) का ब्योरा कैसे लीक हुआ, इसकी जांच के नाम पर कुछ पत्रकारों के फोन की जब्ती पूरी तरह अनुचित और संभवतः अवैध है। जांच की जिम्मेदारी संभालने के लिए मद्रास हाईकोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) यह मानता दिख रहा है कि कथित खुलासे का स्रोत वो मीडियाकर्मी हो सकते हैं जिन्होंने राष्ट्रीय अपराध नेटवर्क डेटाबेस से एफआईआर डाउनलोड की हो सकती है। जो बात इस प्रकरण को उत्पीड़न का मामला बनाती है वह यह है कि पत्रकारों से अरुचिकर और ताक-झांक करने वाले सवाल पूछे गये। एफआईआर कैसे लीक हुई इसकी जांच करने के बजाय, एसआईटी यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि क्या पत्रकारों ने इसे सार्वजनिक दायरे में पहुंचाया। हाईकोर्ट को पहले ही बताया गया था कि किसी तकनीकी समस्या के कारण एफआईआर को ‘अपराध एवं अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क व प्रणाली’ पर दुर्घटनावश अपलोड कर दिया गया था, जिसे बाद में हटा लिया गया। हाईकोर्ट ने एफआईआर लीक होने के मामले में विभागीय जांच का निर्देश दिया था (जिस पर अब सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश दे दिया है)। जो निर्देश विभागीय लीक के स्रोत का पता लगाने के लिए था, उसे इस बात की जांच में बदल दिया गया है कि इसे सार्वजनिक दायरे में किसने प्रसारित किया हो सकता है। जब तक पुलिस द्वारा तलब पत्रकारों ने पीड़िता की पहचान जाहिर करने वाला ब्योरा खुद रिपोर्ट या पोस्ट न किया हो, उनके फोन जब्त करने का कोई कारण नहीं है। पीड़िता की पहचान से जुड़े ब्योरे के कथित प्रसार को लेकर हाईकोर्ट के निर्देश के आधार पर, एक अलग एफआईआर भारतीय न्याय संहिता की धारा 72 के तहत दर्ज की गयी है। यह धारा पीड़िता की पहचान जाहिर करने वाले किसी भी ब्योरे के प्रकाशन को अपराध की श्रेणी में रखती है। मान लेते हैं कि एसआईटी ऐसा प्रकाशन करने वालों का पता लगाने की कोशिश कर रही है, लेकिन असल सवाल यह है कि क्या ये ब्योरे वास्तव में किसी अखबार, टीवी चैनल या सोशल मीडिया पोस्ट में प्रकाशित किये गये। अगर ऐसा कोई खुलासा मौजूद था, तो पुलिस को उन लोगों को तलब करना चाहिए था जो उन संस्थानों या हैंडलों के प्रभार में हैं, न कि उनको जिन्होंने इंटरनेट से सामग्री डाउनलोड की। बड़ा सवाल है कि क्या पुलिस को इतना व्यापक अधिकार है कि वह न्यायिक अनुमति या किसी विश्वसनीय कारण, जिससे पता चलता हो कि अपराध हुआ है, के बगैर मोबाइल फोन या उपकरण जब्त कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट इस तरह की जब्ती के लिए दिशानिर्देश बनाने की खातिर केंद्र से पहले ही कह चुका है, जिसमें वारंट की जरूरत और समानुपातिकता के तत्व शामिल हैं। फोन जब्त करने की अनियंत्रित शक्ति व्यक्तियों की निजता को खतरे में डालती है और मीडिया के मामले में, यह डराने की चाल है तथा उनके सूत्रों को जानने और तंग करने की कोशिश तथा अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। पुलिस को तुरंत न सिर्फ जब्त फोन लौटाने चाहिए, बल्कि अपनी जांच को पीड़िता की पहचान जाहिर करने वाले ब्योरों के प्रकाशन या खुलासे के निश्चित मामलों तक ही सीमित रखना चाहिए।
