पृथ्वीराज चौहान और दूसरा तराइन युद्ध: वीरता और विश्वासघात की अमर गाथा
भारत के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा योद्धा नहीं जो पृथ्वीराज चौहान की तरह वीरता और संघर्ष का प्रतीक बना हो। लेकिन उनकी कहानी का सबसे रोचक और वीरतापूर्ण हिस्सा है मोहम्मद गोरी के साथ हुआ दूसरा तराइन युद्ध। यह युद्ध न केवल एक राजपूत राजा और एक विदेशी आक्रांता के बीच था, बल्कि यह भारतीय भूमि और संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ा गया संघर्ष भी था।
सन 1192 में तराइन का दूसरा युद्ध हुआ। इससे पहले, तराइन के प्रथम युद्ध (1191) में पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को करारी हार दी थी। पराजित होकर गोरी ने दया की भीख मांगी, और पृथ्वीराज ने अपनी राजधर्म और क्षत्रिय परंपरा निभाते हुए उसे क्षमा कर दिया। लेकिन गोरी इस पराजय को कभी भूल नहीं पाया।
गोरी का छल और तैयारी:
मोहम्मद गोरी ने अपनी हार से सबक लिया और दूसरे तराइन युद्ध के लिए बड़ी रणनीति और छल का सहारा लिया। उसने 1,20,000 घुड़सवारों की विशाल सेना तैयार की और अचानक आक्रमण कर दिया। गोरी की सेना में घातक तुर्क धनुर्धारी और तेज़ गति वाले घुड़सवार शामिल थे।
पृथ्वीराज की वीरता:
दूसरी ओर, पृथ्वीराज के पास 3,00,000 सैनिकों की विशाल सेना थी, लेकिन वह गोरी के छल और रणनीति से अनजान थे। युद्ध के मैदान में राजपूतों ने दुश्मन का डटकर सामना किया। पृथ्वीराज और उनके योद्धा सिंह की भांति लड़े। गोरी की सेना ने कई बार हार के संकेत दिए, लेकिन उनकी रणनीति यह थी कि राजपूतों को थका कर हमला किया जाए।
विश्वासघात की काली छाया:
युद्ध में सबसे बड़ा धक्का तब लगा जब पृथ्वीराज की सेना के कुछ गुप्तचरों ने गोरी से मिलकर विश्वासघात किया। गोरी ने भारतीय सैनिकों के बीच फूट डालने और भ्रम फैलाने के लिए छल का सहारा लिया। इसी कारण राजपूत सेना को अंत में भारी नुकसान उठाना पड़ा।
पृथ्वीराज का बलिदान:
युद्ध में घायल और पराजित पृथ्वीराज को कैद कर लिया गया। गोरी ने उन्हें अपनी सत्ता के सामने झुकने को कहा, लेकिन पृथ्वीराज ने इसे ठुकरा दिया। उनकी आँखों को गोरी ने जल्लाद से अंधा करवा दिया, लेकिन पृथ्वीराज ने हार नहीं मानी।
अंतिम प्रतिशोध:
माना जाता है कि अपने मित्र और कवि चंदबरदाई की सहायता से पृथ्वीराज ने गोरी को अपने तीर से मार गिराया। चंदबरदाई ने उनकी वीरता को अमर करने के लिए "पृथ्वीराज रासो" की रचना की।
यह युद्ध न केवल पृथ्वीराज की वीरता, बल्कि राजधर्म और विश्वासघात के कठोर परिणामों का प्रतीक है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चे योद्धा परिस्थितियों से हारकर भी अमर रहते हैं।
"जब तक सूरज चाँद रहेगा, पृथ्वीराज का नाम रहेगा।"
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