फ़ास्ट न्यूज़ इंडिया केंद्र सरकार ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का विचार लागू करने के लिए दो विधेयक पेश कर दिये हैं। अब इस विचार, जिसे सरकार “एक राष्ट्र, एक चुनाव” कहती है, की व्यवहार्यता या अव्यवहार्यता पर बहस के लिए संसद का मंच सज चुका है। विधेयक पेश करने को लेकर विपक्ष द्वारा मत विभाजन की मांग किये जाने से यह साफ हो गया कि आगे क्या होने वाला है। विधेयक के पक्ष में 263 और विपक्ष में 198 वोट पड़े। एक साथ चुनाव को संभव बनाने की खातिर संवैधानिक संशोधन पारित कराने के लिए सरकार के पास संसद में दो-तिहाई बहुमत नहीं है। एक 39-सदस्यीय संसदीय पैनल दोनों विधेयकों को परखेगा। इन विधेयकों की सामग्री पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली समिति की सिफारिशों के अनुरूप है। समिति ने यह परिकल्पना की कि पहले कदम के रूप में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराये जाएं, और बाद में आम चुनाव के 100 दिन के भीतर नगरपालिका और पंचायत चुनाव कराये जाएं। नगरपालिका चुनाव कराने की खातिर जरूरी संशोधनों के लिए, इन्हें कम से कम आधी राज्य विधानसभाओं से संपुष्टि हासिल करनी होगी। संविधान संशोधन विधेयक एक नया प्रावधान जोड़ना चाहता है जो एक साथ चुनाव के लिए टाइमलाइन प्रदान करेगा। और जैसा कि विधेयक में उल्लेख है, यह 2034 में ही संभव हो सकता है, बशर्ते कि उससे पहले किसी वजह से लोकसभा के कार्यकाल में कटौती न हो जाए। अन्य प्रावधानों में भी कोविद समिति की सिफारिशें प्रतिध्वनित होती हैं - उदाहरण के लिए, लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ करने के लिए “निर्धारित तारीख” के बाद अगर कोई राज्य विधानसभा अपने पांच साल के कार्यकाल से पहले भंग होती है, तो ताजा “मध्यावधि” चुनाव कराये जायेंगे लेकिन नयी विधानसभा के पास पांच साल का पूर्ण कार्यकाल नहीं होगा। उसका कार्यकाल “निर्धारित तारीख”से पांच साल पर खत्म होगा। यह विधेयक निर्वाचन आयोग को किसी राज्य विशेष में विधानसभा चुनाव टालने या नहीं कराने का विकल्प भी मुहैया कराता है, लेकिन विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा चुनाव के साथ ही पूरा होगा। ये प्रावधान संघवाद के खिलाफ हैं। निर्धारित पांच साल की अवधि से पहले किसी विधानसभा के लिए एकाधिक चुनाव कराने का विचार, खर्च में कटौती के उस घोषित तर्क के खिलाफ जाता है जो एक साथ चुनाव के विचार को लाने की बुनियाद है। संघवाद यानी शासन के अलग-अलग स्तरों पर सत्ता की साझेदारी का विचार, इनके लिए निर्धारित विशिष्ट महत्व व भूमिकाओं से बंधा है और मतदाताओं द्वारा सरकार के इन अलग-अलग स्तरों से जुड़ी अपनी विशिष्ट चिंताएं प्रकट करने के लिए चुनाव एक तरीका है। तमाम चुनावी चक्रों को एक निर्दिष्ट समयावधि (टाइम फ्रेम) में समेटने से, एक साथ चुनाव का विचार प्रत्येक स्तर के महत्व को कम करने की क्षमता रखता है, जो भाजपा/एनडीए शासन की केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों के मुताबिक है। इससे संघवाद के प्रति प्रतिबद्ध लोगों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वे इस विचार का डटकर विरोध करें.