देश में पूजा स्थल विवादों से जुड़े नये मुकदमों के पंजीकरण पर रोक लगाने वाला सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश एक स्वागतयोग्य बदलाव है। हाल के दिनों में इस तरह की प्रेरित मुकदमेबाजी के प्रति न्यायपालिका का रवैया छूट देने वाला रहा है। पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की वैधता पर सुनवाई करते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली एक खंडपीठ ने मुकदमेबाजी और अंतरिम आदेशों (जिनमें ऐसे स्थलों व ढांचों के ‘सर्वेक्षणों’की अनुमति देने वाले आदेश भी शामिल हैं) की बाढ़ पर रोक लगाकर सही किया है। यह आदेश इस गहरी समझ को दिखाता है कि यह कुछ दीवानी विवादों का नहीं, बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के भविष्य का मामला है। सही सोच वाले नागरिकों के लिए यह काफी स्पष्ट है कि कानून (जो देश में सभी पूजा स्थलों का वही चरित्र स्थिर करता है जो आजादी के दिन था) चाहेगा कि यह विधान ऐसे विवादों के जरिए धार्मिक विभाजन कायम रखने के इच्छुकों के खिलाफ एक ढाल की तरह कानून की किताब में बना रहे। यह दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है कि अदालतें इस कानून के तहत रोक का इस्तेमाल करते हुए इन मुकदमों को आरंभिक अवस्था में रोकने में नाकाम रही हैं। इसके बजाय, वे या तो उपरोक्त अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुराने फैसलों में इसकी जरूरत की संपुष्टि की उपेक्षा करते हुए, सर्वेक्षण के लिए अर्जियों को मंजूरी दे रही हैं या यह व्यवस्था दे रही हैं कि वैधानिक रोक उन पर लागू नहीं होती। आक्रांताओं के हाथों गंवाये गये धार्मिक स्थलों को दोबारा हासिल करने के नाम पर, कई समूह और तथाकथित श्रद्धालु दीवानी अदालतों में पहुंच रहे हैं और इस सबूत के लिए मस्जिदों के सर्वेक्षण का आदेश हासिल कर रहे हैं कि उन्हें ध्वस्त मंदिरों के खंडहरों पर बनाया गया हो सकता है। राम जन्मभूमि आंदोलन को सफलता मुख्यत: इसके नेतृत्वकर्ताओं को हासिल राजनीतिक संरक्षण, और सुप्रीम कोर्ट के उस अंतिम निर्णय की वजह से मिली है जिसने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने की निंदा करते हुए विवादित जमीन हिंदू पक्षकारों को सौंप दी। विध्वंस में शामिल उपद्रवी बरी कर दिये गये, जिसके खिलाफ आगे कोई अपील नहीं की गयी। साथ ही, मस्जिदों की स्थिति बदलने के लिए यह आंदोलन विजय का प्रतीक बन गया।