फ़ास्ट न्यूज़ इंडिया यूपी वाराणसी। विख्यात काशी के देवेन्द्र चतुर्वेदी जी महाराज से एक चर्चा के माध्यम से वास्तविक धर्म होता क्या है इस सन्दर्भ में कहा सनातन धर्म से जोड़ने का कार्य अतिशय ही प्रसन्नचित्त करने वाला कार्य हो रहा है। कोई धर्म के संबंध में पूछ रहा था। उससे मैंने कहां, 'धर्म का संबंध इससे नहीं है कि आप उसमें विश्वास करते हैं या नहीं करते। वह आपका विश्वास नहीं, आपका श्वास-प्रश्वास हो, तो ही सार्थक है। वह तो कुछ है- जो आप करते हैं या नहीं करते हैं- जो आप होते हैं, या नहीं होते हैं। धर्म कर्म है वक्तव्य नहीं।" और धर्म कर्म तभी होता है, जब वह आत्मा बन गया हो। जो आप करते हैं, वह आप पहले हो गए होते हैं। सुवास देने के पहले फूल बन जाना आवश्यक है। फूलों की खेती की भांति आत्मा की खेती भी करनी होती है। और, आत्मा में फूलों को जगाने के लिए पर्वतों पर जाना आवश्यक नहीं है। वे तो जहां आप हैं, वहीं उगाये जा सकते हैं। स्वयं के अतिरिक्त एकांत में ही पर्वत हैं और अरण्य हैं। यह सत्य है कि पूर्ण एकांत में ही सत्य और सौंदर्य के दर्शन होते हैं। और जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह उन्हें मिलता है, जो अकेले होने का साहस रखते हैं। जीवन के निगूढ़ रहस्य एकांत में ही अपने द्वार खोलते हैं। और आत्मा प्रकाश को और प्रेम को उपलब्ध होती है और धर्म कर्म तभी होता है, जब वह आत्मा बन गया हो। जो आप करते हैं, वह आप पहले हो गए होते हैं। सुवास देने के पहले फूल बन जाना आवश्यक है। फूलों की खेती की भांति आत्मा की खेती भी करनी होती है। और, आत्मा में फूलों को जगाने के लिए पर्वतों पर जाना आवश्यक नहीं है। वे तो जहां आप हैं, वहीं उगाये जा सकते हैं। स्वयं के अतिरिक्त एकांत में ही पर्वत हैं और अरण्य हैं। यह सत्य है कि पूर्ण एकांत में ही सत्य और सौंदर्य के दर्शन होते हैं। और जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह उन्हें मिलता है, जो अकेले होने का साहस रखते हैं। जीवन के निगूढ़ रहस्य एकांत में ही अपने द्वार खोलते हैं। और आत्मा प्रकाश को और प्रेम को उपलब्ध होती है। और जब सब शांत और एकांत होता है, तभी वे बीज अंकुर बनते हैं, जो हमारे समस्त आनंद को अपने में छिपाये हमारे व्यक्तित्व की भूमि में दबे पड़े हैं। वह वृद्धि, जो भीतर से बाहर की ओर होती है, एकांत में ही होती है। और स्मरण रहे कि सत्य-वृद्धि भीतर से बाहर की ओर होती है। झूठे फूल ऊपर से थोपे जा सकते हैं, पर असली फूल तो भीतर से ही आते हैं। इस आंतरिक वृद्धि के लिए पर्वत और अरण्य में जाना आवश्यक नहीं है, पर पर्वत और अरण्य में होना अवश्य आवश्यक है। वहां होने का मार्ग प्रत्येक के ही भीतर है। दिन और रात्रि की व्यस्त दौड़ में थोड़े क्षण निकालें और अपने स्थान और समय को, और उससे उत्पन्ना अपने तथाकथित व्यक्तित्व और 'मैं" को भूल जाएं। जो भी चित्त में आये, उसे जानें कि यह मैं नहीं हूं, और उसे बाहर फेंक दें।सब छोड़ दें- प्रत्येक चीज, अपना नाम, अपना देश, अपना परिवार-सब स्मृति से मिट जाने दें और कोरे कागज की तरह हो रहें। यही मार्ग आंतरिक एकांत और निर्जन का मार्ग है। इससे ही अंतत: आंतरिक संन्यास फलित होता है।