"बचपन, बीडियो और जिस्म की गर्मी"
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तब जब टीवी बहुत कम थी, तब हम बीडियो पर मरते थे। तब हमारे जीवन में 'सनीमा' और 'फिलिम' या 'वीडियो' शब्दावली भी नहीं थी, था तो केवल "बीडियो",
भले ही उस पर हम 'सनीमा' या 'फिलिम' ही देखते थे, लेकिन उसे बीडियो ही बोलते। तब "बीडियो" का वो सेन्स या मतलब नहीं था, जो कि आज ''वीडियो' से है।
"बीडियो" हमारे लिए मनोरंजन से ज़्यादा 'मौका' हुआ करता था, उस दौर का बेस्ट सेलिब्रेशन।
हम एक-दो-तीन दिन पहले ही पता करके रखते थे कि एक-एक, दो-दो कोस तक कहाँ-कहाँ बीडियो लग रहा है, या लगने वाला है। बीडियो देखने वाली रात के पहले कोशिश करते कि दिन में सो लें जिससे रात में ज़्यादा जग सकें।
बीडियो देखने का यह सौभाग्य ज़्यादातर दो अवसरों पर मिलता। एक - शादी बिआह में और दूसरा नवरात्रि में।
पहले दुर्गा पूजा में "बीडियो" केवल एक दिन के लिए लगता, फिर पूजा समितियों में कम्पटीशन बढ़ने लाग-डाट, चला-चली, चढ़ी-चढ़ा के कारण पूरे-पूरे हफ्ते लगने लगा।
इसके अलावा मूंड़न - टूंड़न, गौना, रामायण - भागवत में भी कभी-कभी कुछ छिट - पुट मौके मिल जाते।
इसी बीच कहीं-कहीं पर बीडियो का बाप मतलब 'परदहिया' यानी कि प्रोजेक्टर वाला सिनेमा देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हो जाता।
'अबे चल-चल, परदहिया आवत बा'
कहीं पर बीडियो लगता तो फिल्मों का एक पूरा पैकेज आता। जिसमें मुख्यता फ़िल्में तीन तरह की होतीं --
भक्ती, पारिवारिक और मारधाड़ वाली
इन्हीं के बीच कभी-कभी बीच में कोई एक रोमांस-वोमांस वाली फ़िल्म भी घुसेड़ दी जाती।
मान लो 4 फ़िल्में आईं तो 1 भक्ती, 1 पारिवारिक / प्रेम-विरह वाली और आवश्यक रूप से 1-2 मार-धाड़ वाली होतीं।
अच्छा, सभी वर्गों में ज़्यादातर फ़िल्में पहले से निश्चित होतीं कि कौन-कौन सी चलेंगी। जैसे कि भक्ती फ़िल्मों की ज़िम्मेदारी 'जय संतोषी माँ', 'जय बजरंग बली', 'राजा हरिश्चंदर, 'भक्त प्रहलाद', 'जय वैष्णो माँ', 'नागपूजा', 'सती अनुसुइया', 'रामायण' इत्यादि पर होती।
पारिवारिक फिल्मों में 'स्वर्ग', 'घरद्वार', 'स्वर्ग से सुन्दर', 'घर घर की कहानी', 'बीवी हो तो ऐसी', 'कन्यादान', 'नदिया के पार', 'बेटा' जैसी फ़िल्में शामिल रहतीं।
इनमें घर का कोई एक सदस्य बलिदान पर बलिदान किये जाता और कोई एक सदस्य अत्याचार पर अत्याचार। फिर कोई सदस्य, जो ज़्यादातर कोई अनाथ या घर के बाहर का होता वो अचानक से हीरो के रूप में आता और मालिक का दिल जीत लेता। उसे मालिक की बहन या बेटी से प्रेम भी हो जाता।
फिर उस पर कोई आरोप लग जाता और यह कहा जाता कि देख लिया बाहर का खून?
लेकिन, अंत में फिर कुल मिलाकर दोषियों का हृदय परिवर्तन हो जाता।
प्रेम और और विरह की कैटगरी में 'फूल बने अंगारे', 'साजन', 'फूल और काँटे', 'सनम बेवफा', 'मैंने प्यार किया', 'आशिकी' इत्यादि प्राथमिकता से आतीं।
फिर आती अंतिम कैटगरी-- ऐक्शन, रहस्य, रोमांच, मार-धाड़ से भरपूर फ़िल्में।
हीरो की बात आती दो नाम सबसे पहले निकलते - अमिताच्चन और मिथ्थुन।
कोई भी पैकेज हो, उसमें मिथ्थुन की फ़िल्में ज़रूर शामिल रहतीं। उनमें भी ज़्यादातार ऐसी जिनमें कि उनके किसी ख़ास महिला (सामान्यतया प्रेमिका / हीरोइन को छोड़कर) की इज़्ज़त ज़रूर लूटी जाती। इन फिल्मों में पारिवारिक रिश्तों का ऐसा बेडा गर्क हुआ कि देखते ही जान जाते कि अगर हीरो की कोई बहन वगैरह है तो उसके साथ ज़बरदस्ती होनी तय है।
मार-धाड़ वाली फ़िल्में कन्फर्म करने के लिए हम लोग फिल्मों का नाम न पूछते, बल्कि खलनायक / विलेन का नाम पूछते।
सबसे पसंदीदा नाम जो सुनना चाहते वो होता - 'अमरीशपुरी' का
ये नाम सुनते ही खुश हो जाते कि लो बेट्टा, भैया अब तो मार-धाड़ देखने को मिलेगा।
इसके अलावा अगर विलेन के नामों में रंजीत, जीवन, प्रेम चोपड़ा, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर टाइप का नाम सुनाई पड़ता तो जानकर लोग बताते कि 'हीरोइन की इज्जत लूटने वाली कहानी' है।
एक बार किसी ने बताया था कि 'इन स*** ने मिलकर कुल मिलाकर सैकड़ों बलात्कार किये होंगे। बाद में पता चला कि वो सब ऑनस्क्रीन ही था।
इस कैटगरी में तहलका, दाता, लोहा, आज का अर्जुन, वतन के रखवाले, धर्मात्मा, अँधा-कानून, लाल दुपट्टा मलमल का, दूध का क़र्ज़, तेरी मेहरबानियां, मर्द, जानी दुश्मन, ऐलाने जंग, खुदा गवाह, अजूबा और शोले-गब्बर जैसी फ़िल्में ज़रूर आतीं।
उस समय गब्बर इतना फेमस हुआ था कि केवल 'शोले' बोला ही न जाता। बोलते 'शोले गब्बर'
आगे चलकर मार-धाड़ वाली कैटगरी में अनिवार्य रूप से एक फ़िल्म और शामिल हो गई - "दिलवाले"
'जीता था / जीती थी जिसके लिए, जिसके लिए मरता था / मरती थी' के रूप में आशिक लड़कों-लड़कियों को एक कालजयी विरह - वियोग शताब्दी गीत मिला तो प्रेम के विरोधियों को 'गंजे सर वाले, पान खाने वाले' 'मामा ठाकुर' जैसा विलेन भी मिला....
इस फिल्म ने हमारे ग्रामीण क्षेत्र में एक 'कल्ट' स्थापित किया है। हमारे यहाँ इस फिल्म का इतना क्रेज़ था कि कुछ लोगों ने देख-देखकर इसका रिकॉर्ड ही तोड़ दिया। लिहाजा पब्लिक ने उनको पुरस्कार स्वरुप 'दिलवाले' नाम ही दे दिया।
हमारे परिचित कुछ लोग आज भी इसी नाम से जाने-पहचाने जाते हैं।
धार्मिक और पारिवारिक फ़िल्मों को देखते-देखते रात के 1-2 बज जाते, इस समय तक बच्चे अक्सर सो जाते। फ़िल्में देखने आई कुछ औरतें घर वापस लौट जातीं, और तब तक बूढ़े भी ऊँघने लगते।
वीडियो, कैसेट, रिमोड और जनरेटर पर कब्ज़ा जमाए युवा और जवान शौक़ीन लोग अब कुछ रोमांस-वोमांस वाली फ़िल्में चलाते।
ध्यान दीजिएगा यहाँ प्रेम और रोमांस में बहुत बारीक सा अंतर है।
हालाँकि रोमांस वाली फ़िल्मों की थीम भी 'पहला, सच्चा और आख़िरी प्रेम' बनाम 'ऊंच-नीच, गरीब-अमीर, बेदर्द ज़माना' ही होती, लेकिन इन फ़िल्मों में हीरो-हीरोइन का प्रेम 'मन-आत्मा-दिल-जिगर-फेफड़े' और 'शादी के पहले ये सब नहीं' के स्तर से निकल कर 'होंठ, गाल, पेट, पीठ और शरीर की त्वचा' के स्तर तक आ जाता।
या फिर इनमें कभी-कभी शहर से आया हुआ कोई छैल-छबीला सा, बांका या गबरू हीरो गांव की किसी भोली-भाली, कली सी मासूम और छुईमुई सी नाज़ुक हीरोइन को प्रेगनेंट करके शहर वापस चला जाता।
प्रेम के इस रूप को सभ्य समाज परिष्कृत भाषा में 'रोमांस' कहता है लेकिन हमारे यहाँ सस्ती भाषा में इसे 'गन्दी फिल्म' बोलते।
इसलिए इसे देखने के लिए अलग आयुवर्ग अलग टाइम स्लॉट का चयन करता।
इनमें 'राम तेरी गंगा मैली' का नाम सबसे पहले आता। सुनते थे कि उसमें कोई झरने वाला सीन था, उसे देखने के लिए युवा लोग टूट कर लहालोट रहते।
इसमें कुछ ऐसी भी फ़िल्में होतीं जिसमें किसी बुरी परिस्थिति में फंस जाने पर 'हीरोइन' की जान बचाने के लिए उसको 'जिस्म की गर्मी' की ज़रूरत पड़ती।
खलनायक से लड़ने-झगड़ने, गाँव के ठाकुर के अत्याचार से गाँव को मुक्त कराने, भ्रष्ट थानेदार की यातना से हिंसा का मार्ग पकड़ लेने वाले और देश-समाज बचाने वाले बिचारे 'हीरो' को हीरोइन के शरीर से साँप का विष चूसने के बाद मजबूरी में हीरोइन को 'जिस्म की गर्मी' देकर बिचारी 'हीरोइन' की जान बचाने जैसा पुण्य काम करना पड़ता।
ऐसा पुण्य काम होता हुआ देखकर हम बच्चे पाप के भागी न बनने पाएं, इसलिए युवा और जवान शौक़ीन लोग ऐसी फिल्में चलाने के पहले हम बच्चों को सो जाने या घर जाने को बोल देते।
जहाँ बीडियो / परदा लगता लगता वहाँ हम सबसे आगे बैठते जिससे मार-धाड़ और जिस्म की गर्मी अच्छे से देख सकें लेकिन ज़्यादातर देर रात होते-होते हम लोग या तो घर लौट पड़ते। या फिर वहीं कहीं पुआल-पैरा / बोरा जैसा कुछ बिछा हुआ मिल जाता तो उसी पर सो जाते।
बीडियो देखने के दौरान फिल्मों के हीरो-हीरोइन का नाम बता देने वाले लड़के - युवक तेज़-तर्रार, 'अपटूडेट' और आज की भाषा में 'कूल डूड' माने जाते और नए-नए शौकीनों या फिर अनाड़ी टाइप के पुराने शौकीनों द्वारा श्रद्धा और इज्जत से देखे जाते।
फिल्म के गीत सुनकर गायक / गायिका का नाम बता देने वाले को तो भारत रत्न देने का मन करता।
ऐसे ही एक बार मेरे एक दोस्त ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए थे, जिसके लिए मैं आज तक उसका एहसानंमंद हूँ।
'याराना' फिल्म का 'तेरे जैसा यार कहाँ, कहाँ ऐसा याराना' गाना सुनकर दोस्ती में मैं भावुक हो गया। आवेश में उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, 'भाय अमिताच्चन कितना अच्छा गा रहा है'
वह लड़का उसी साल की गर्मियों में कुछ दिनों के लिए अपने मामा के यहाँ कलकत्ता रह कर आया था, इसलिए मुझसे ज्ञान और बुद्धि में आगे निकल गया था। उसने लगभग-लगभग चहेंटते हुए अपने कंधे से हाथ मेरा हाथ झटकते हुए मेरा ज्ञानवर्धन किया, 'अबे ! हिरौउवा केवल मुँह डोलाता है, गाती मसिनिया है' (अबे हीरो केवल मुँह चलाता है, मशीन गाती है)
अगले दिन स्कूल में या फिर कहीं और मिलने पर हम लोग उन दोस्तों को जो बीडियो नहीं देख पाए थे, उन्हें फिल्म की स्टोरी सुना कर भौकाल मारते।
'जानते हो बे ! हिरौउवा घोडा लेकर तिमंजिला से कूदि गय' या फिर 'कैसे अमिताच्चनवा स्टेनगन की गोली के बीचे से निकरि गय'
इसे सुनकर कोई बड़ा बुजुर्ग बोलता,
'एका देखा, अमिताच्चनवा-अमितभवा ऐसे बोल रहा है जइसे इनके हरवाह होय। अब तू पढ़ि भया। तोहार लच्छन ठीक नाय बा। ललन तू जाबा अपने चलन से....
लेकिन कुछ भी हो, बीडियो का वो दौर था बड़ा मज़ेदार।
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