एक बार की बात है रात का वक़्त ट्रेन पकड़ने के लिए बिल्कुल सही होता है, मतलब ट्रेन में बैठ के सो जाओ, और सुबह उतर जाओ.
बनारस और दिल्ली के बीच की दूरी ऐसे ही नापते आए थे हम और इस बार भी शिवगंगा एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म 12 पे ही लगी हुई थी. सीट पर बैठने के बाद लगा की बोगी इस बार कुछ खाली ही रह गई, और सफर आराम से बीत जाएगा, और कब फेसबुक चलाते और एयरटेल के नेट को गरियाते आंख लग गई, पता ही नहीं चला.
शाम आठ बजे, ट्रेन शायद अलीगढ़ के आसपास कहीं होगी, तब हमारी आंख खुली,कुछ और अच्छे से खोलने पर पता चला कि एक मोहतरमा सामने की सीट पे बैठी थीं.
व्यक्तित्व वर्णन में हम बहुत औसत हैं, फिर भी इतना समझ गए कि उनके पास आईफोन 7 है, उम्र कुछेक पच्चीस के करीब होगी, अच्छी खासी जुल्फें थी , और बाकी कुछ देखने लायक दिसंबर की सर्दी में होता भी नहीं है।
लड़की देखकर मन में अनंत संभावनाएं बन जाती हैं, लेकिन सफर उनको पूरा करने में बहुत छोटा होता है, बहरहाल,वो लड़की फोन रखकर अब खिड़की के बाहर देखने लग गई थी।
शायद कुछ कहना था उसको.
"आप कहां तक जाएंगे?"
मन किया की कह दें जहा तक आप साथ हों,
"बनारस तक टिकट है हमारा,और आप?"
"मुझे कानपुर इलाहाबाद उतरना है"
इस जानकारी के बाद शांत सन्नाटा छा गया,और शिवगंगा भी मुझे चिढ़ाते हुए, तेज़ी से आगे बढ़ी जा रही थी.
लड़की की आंखों में कुछ था,कुछ वैसा जो बहुत गहरा होता है, बहुत प्रभावशाली. अमूमन वैसी आंखें कम ही देखने में आती हैं, और हम यहां डूबने को तैयार बैठे थे,जैसे तन्हाई आज ही रुखसत हुई जाए.
"आप भविष्य देखना या ऐसी बातों में यकीन करते हैं?"
बात की शुरुआत करने के लिए ये एक निहायती घटिया प्रश्न था, फिर भी मुझे लगा कि शायद ये कोई प्रैंक बनाना चाह रही हो और दिल्ली की मॉडर्न लड़कियों को तो मजा आता है, अजनबियों से खेलने में.
"हां,अगर भविष्य हमारे हिसाब से देखा जाए"
शायद वो कुछ गंभीर थी,कुछ सकुचाई हुई, बाल को वापस कान के पीछे करके वो बोली,"क्या आप जानते हैं,अब से कुछ घंटो बाद, यहां इस बोगी में खून बिखरा पड़ा है, आपके कपड़ों और मुंह पर,या शायद खून आपका ही है"
इसे भी किसी प्रैंक का हिस्सा मानते हुए हमने सोचा, मोहतरमा को जान लेने की बड़ी जल्दी है, बिना दिल लिए ही जान ले लेंगी.
"हां,फिर आगे"?
एक चुप्पी के बाद वो बोली,"अमूमन मुझे ये भविष्य के दृश्य नहीं आते लेकिन,जब आते हैं तो अधिकांशत सच होते हैं,और शायद आज कुछ होने वाला है"
हां,आप हमारे प्यार में पड़ जाएंगी,और क्या. मैंने उसका माखौल उड़ाया।
ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी,और अब एकदम निशब्द सन्नाटा पसरा हुआ था.
कुछेक घंटों बाद,कानपुर आया,और गाड़ी अपनी गति से आगे निकल गई,
इंडस्ट्रियल एरिया, मोबाइल टॉवर, दूर घरों से आती मद्धिम टिमटिमाती लाइटें, और शहर का कोलाहल,सब पीछे छूटता गया.
मैंने घड़ी देखा,दो बज रहे थे,वो अपनी सीट पे लेटी हुई थी,और शायद नींद में थी.
मेरा फोन डिस्चार्ज हो गया था,और फोन के प्लग में बिजली नहीं थी,तो खिड़की के बाहर देखना ही एकमात्र मन बहलाव था, सो हम देखने लगे
पता नहीं क्यों,लेकिन ऐसा लग रहा था कि सारे रास्ते दोहराए जा रहें हैं,वहीं पेड़, वही लोग और वही घुमावदार पटरियां,या शायद नींद की खुमारी और रात के अंधेरे में मुझे ऐसा लग रहा होगा.
तीसरी बार,हमने निश्चय किया कि ट्रेन के साइड में लगे खंभों की संख्या देखेंगे,और फिर आया ४०३,४०४....,४०९ और कुछेक मिनटों बाद दोबारा ४०३..
दिल बड़ी जोर से धड़का एक बार को,फिर मैंने उसे उठाने का निश्चय किया,लेकिन अब सामने वाली सीट पर कोई था ही नहीं.
बस ऐसा लगा कि बनारस भर को की पूरी ठंड हमारे सीने में समा गई है,और दिमाग अनेक अनहोनियों की कल्पना में लीन हो गया.
चैन खींच कर देखू? लेकिन ट्रेन रुकेगी भी कहां,? जाएंगे कहां? बोगी में और कोई भी नहीं था,या शायद जगा नहीं था,
दिल अब जोर से धड़क रहा था,और सांसें भी,कौन चुड़ैल से इश्क लड़ा लिए यार,जरूर उसको मन भी पढ़ना आता होगा,हमारा दिमाग इस वक़्त भी फालतू की बातें सोच रहा था,और हाथ,वो ठिठुर रहे थे.
आखिकार मैंने उठ कर बाथरूम जाने का निश्चय किया,जो उस भयानक हिम्मत का काम था.
खैर,बाथरूम पहुंच कर बाहर आने में कोई कठिनाई नहीं हुई,और वापसी का रास्ता भी ठीक था,और मेरे हिसाब से 3 बज गए थे,ट्रेन अभी भी एक ही जगह घूम रही थी,सीट पर वापस आके मेरा दिल बैठने लगा.
वो अपनी सीट पे बैठी हुई थी,मुंह नीचे लटका के,और हाथ पैरों पे,
"वो,वो ट्रेन बढ़ नहीं रही आगे"
चुप्पी,गहरी चुप्पी
"आपने देखा,ट्रेन एक ही जगह घूम रही है"
वो बिना हिले,बैठी रही,उसी जगह.जड़वत
मैंने उसको कंधे से उठकर बैठाने की कोशिश की,और कंधे पे हाथ लगाते ही,लाल,ताज़े खून से हाथ भर उठा.
भगवान,ये क्या हो रहा है?उसका सिर उठाया,तो मुंह खून से भरा हुआ था,जिसके छींटे शर्ट पे भी थे,और अब मेरे हाथों में भी.
मेरा दिमाग तेज़ी से घूम रहा था,और सिर चकरा रहा था.
उसको छोड़ कर मै अपनी सीट पर आ गया,अब उसने सिर ऊपर कर लिया,उसकी आंखों में अजीब सी उदासी थी एक,उसने एकटक मुझे घूरा,
सिहरन,बस सीना चीरकर बाहर आने को थी.उस वीराने में उसकी आंखे काटने को दौड़ती थीं,और मै हार मान चुका था,जैसे मेरे जिंदगी की आखिरी रात हो यह.
अब चार बज गए थे,उसकी आंखों में आंसू थे,और चेहरे पर निष्काम भाव,
जैसे लगा की ट्रेन अपने रूट पर लौट चुकी है,और मैं सही था.
कुछ समय बाद इलाहाबाद आया,और वो चुपचाप उतर गई,मै भी कुछ बोलने सुनने में बिल्कुल असहज था.
खैर,बनारस आया,हम उतरे भी.
पर मेरे दोस्त आजतक बोलते हैं,की उस रात तो शिवगंगा चली ही नहीं थी,और उसके एक रात पहले उसी ट्रेन में एक लड़की का रेप करके बेरहमी से हत्या कर दी गई थी.
रात दो से तीन बजे,जो समय भी बिल्कुल हमारे समय से मेल खाता है.
किसको मानूं? उनको? या अपनी उस शर्ट पे लगे खून के दाग़ को,जो मैंने इलाहाबाद की पटरियों पर डाल दी थी.
क्या भविष्य दृष्टा सही में होते हैं? या भूत इलाहाबाद में गायब हो जाते हैं?
बहरहाल हम दोबारा शिवगंगा से नहीं गए.