तीर्थंकर मेडीकल कालेज और 7 माह की बच्ची राजेश बेटी के जन्म पर बहुत खुश था. उस की तबीयत खराब होने पर वह उसे ले कर कई अस्पतालों में भी गया. लेकिन उसी दौरान ऐसी क्या बात हुई कि वह अपनी 6 दिन की बेटी को जिंदा दफनाने को मजबूर हुआ?
जनवरी, 2014 को मुरादाबाद जिले के गुरेठा गांव में 2 व्यक्ति पहुंचे. उन में से एक की गोद में एक बच्चा था. वह बोला, ‘‘तीर्थांकर महावीर मैडिकल कालेज में मेरी पत्नी ने एक बेटी को जन्म दिया था. बच्ची मर गई है. अब इसे दफनाना है. दफनाने के लिए हमें फावड़ा चाहिए. हमें श्मशान बता दो, इस बच्ची को हम वहां दफना देंगे.’’
ऐसे दुख में लोग हर तरह से सहयोग करने की कोशिश करते हैं. इसलिए फावड़ा आदि ले कर गांव के कई लोग उन दोनों के साथ गांव के पास ही बहने वाली गांगन नदी की ओर चल दिए. गांव का एक आदमी दुकान से बच्ची के लिए कफन भी खरीद लाया.
गांगन नदी के आसपास के गांवों के लोग अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार नदी के किनारे स्थित श्मशान में करते थे. इसलिए वे भी बच्ची को कफन में लपेट कर नदी की तरफ चल दिए.
नदी किनारे पहुंच कर गांव के एक आदमी ने बच्ची की लाश को दफनाने के लिए एक गड्ढा भी खोद दिया. वह उसे दफनाने ही वाले थे कि उसी समय बच्ची रोने लगी.
बच्ची के रोने की आवाज सुन कर गांव वाले चौंक गए क्योंकि उस बच्ची को तो उन दोनों लोगों ने मरा हुआ बताया था. बच्ची के जीवित होने पर उस के पिता और साथ आए युवक को खुश होना चाहिए था लेकिन वे घबरा रहे थे. उन के चेहरे देख कर गांव वालों को शक हो गया. वे समझ गए कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है.
लिहाजा उन्होंने उन दोनों को घेर लिया और हकीकत जानने की कोशिश करने लगे. लेकिन वे यही कहते रहे कि डाक्टर ने बच्ची को मृत बताया था. इस के बाद ही तो वे उसे दफनाने के लिए आए थे. यह बात गांव वालों के गले नहीं उतर रही थी.
शोरशराबा सुन कर आसपास खेतों में काम करने वाले लोग भी वहां पहुंच गए. भीड़ बढ़ती देख वे दोनों वहां से भागने का मौका ढूंढ़ने लगे. लोगों ने उन्हें दबोच लिया और उसी समय पाकबड़ा थाने में फोन कर दिया.
सूचना पा कर थानाप्रभारी तेजेंद्र यादव सबइंसपेक्टर सहदेव सिंह के साथ श्मशान घाट पहुंच गए. उन्होंने दोनों लोगों से पूछताछ की तो एक ने अपना नाम राजेश और दूसरे ने दिनेश बताया. उन्होंने जब बच्ची को देखा तो वह जीवित थी. वह 5-6 दिनों की लग रही थी.
पता चला कि वह राजेश की बेटी है और दूसरा युवक उस का साला है. पास में ही तीर्थंकर महावीर मैडिकल कालेज था. पुलिस ने उस बच्ची को अविलंब मैडिकल कालेज में भरती करा दिया जिस से उस की जान बच सके.
डाक्टरों ने जब उस बच्ची को देखा तो वे चौंक गए क्योंकि वह बच्ची वहीं पैदा हुई थी और उस की मां उस समय वहीं भरती थी. डाक्टरों ने पुलिस को बताया कि बच्ची को उस का पिता राजेश जीवित अवस्था में ही ले गया था, उस के मरने का तो सवाल ही नहीं है.
मामला गंभीर लग रहा था इसलिए थानाप्रभारी ने यह सूचना नगर पुलिस अधीक्षक महेंद्र यादव को दे दी. उधर डाक्टरों ने भी बच्ची को आईसीयू में भरती कर के इलाज शुरू कर दिया.
नगर पुलिस अधीक्षक महेंद्र भी थाना पाकबड़ा पहुंच गए. थानाप्रभारी ने उन के सामने राजेश से जब पूछताछ की तो बच्ची को जिंदा दफन करने की एक चौंकाने वाली कहानी सामने आई.
राजेश मूलरूप से उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के हाफिजगंज का रहने वाला था. वह मोटर मैकेनिक का काम करता था. पिता रामभरोसे को जब लगा कि राजेश अपना घर चलाने लायक हो गया है तो उन्होंने बरेली के ही नवाबगंज में रहने वाले मुक्ता प्रसाद की बेटी सुनीता से उस की शादी कर दी.
शादी हो जाने के बाद राजेश के खर्चे बढ़ गए थे इसलिए राजेश कहीं दूसरी जगह अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगा. इसी दौरान उत्तरांचल के रुद्रपुर शहर स्थित एक फैक्ट्री में उस की नौकरी लग गई. उस फैक्ट्री में बाइकों की चेन बनती थीं.
कुछ दिनों बाद राजेश पत्नी सुनीता को भी रुद्रपुर ले गया. वहां हंसीखुशी के साथ उन का जीवन चल रहा था. इसी दौरान सुनीता गर्भवती हो गई. इस से पतिपत्नी दोनों ही खुश थे. पहली बार मां बनने पर महिला को कितनी खुशी होती है, इस बात को सुनीता महसूस कर रही थी. राजेश भी सुनीता की ठीक से देखभाल कर रहा था. सुनीता को 7 महीने चढ़ गए. अब सुनीता को कुछ परेशानी होने लगी थी. क्योंकि डाक्टर ने भी सुनीता को कुछ ऐहतियात बरतने की हिदायत दे रखी थी. सावधानी बरतने के बाद भी अचानक एक दिन सुनीता को प्रसव पीड़ा हुई.
जिस डाक्टर से सुनीता का इलाज चल रहा था, राजेश पत्नी को तुरंत उसी डाक्टर के पास ले गया. सुनीता का चैकअप करने के बाद डाक्टर ने स्थिति गंभीर बताई क्योंकि सुनीता के पेट में 7 महीने का बच्चा था. यदि वह आठ साढ़े आठ महीने से ऊपर का होता तो डिलीवरी कराई जा सकती थी, समय से 2 महीने पहले डिलीवरी कराना उस डाक्टर की नजरों में मुनासिब नहीं था.
ऐसी हालत में सुनीता को किसी अच्छे अस्पताल या नर्सिंगहोम में ले जाना जरूरी था. रुद्रपुर में कई नर्सिंगहोम ऐसे थे जहां सुनीता को ले जाया जा सकता था लेकिन वे महंगे होने की वजह से राजेश के बजट से बाहर थे. लिहाजा वह पत्नी को ले कर मुरादाबाद आ गया और उसे तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के मैडिकल कालेज में भरती करा दिया.
वहां 4 जनवरी, 2014 को सुनीता ने एक बेटी को जन्म दिया. बच्ची 7 महीने में पैदा हुई थी इसलिए वह बेहद कमजोर थी. उसे इनक्यूबेटर में रखा जाना बहुत जरूरी था लेकिन मैडिकल कालेज में जो इनक्यूबेटर थे, उन में पहले से ही दूसरे बच्चे रखे हुए थे.
ऐसी स्थिति में मैडिकल कालेज के जौइंट डाइरैक्टर डा. विपिन कुमार जैन ने राजेश को सलाह दी कि वह अपनी बच्ची को किसी अन्य नर्सिंगहोम या अस्पताल या फिर दिल्ली ले जाए. क्योंकि बच्ची की हालत ठीक नहीं है.
उधर इतनी कमजोर बच्ची को देख कर वार्ड में भरती मरीजों के तीमारदारों ने राजेश के मुंह पर ही कह दिया कि ये बच्ची बचेगी नहीं और यदि बच भी गई तो पूरी जिंदगी अपंग रहेगी. लेकिन राजेश ने उन की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
बेटी की जान बचाने के लिए राजेश उसे ले कर मुरादाबाद के साईं अस्पताल पहुंचा. राजेश के साथ उस का साला दिनेश भी था. साईं अस्पताल में बच्ची को भरती करने से पहले 10 हजार रुपए जमा कराने को कहा गया. उस के पास उस समय इतने रुपए नहीं थे. राजेश ने अस्पतालकर्मियों से कहा भी कि वह पैसे बाद में जमा करा देगा, पहले बेटी का इलाज तो शुरू करो. लेकिन उस के अनुरोध को उन्होंने अनसुना कर दिया.
राजेश बेटी को हर हाल में बचाना चाहता था. इसलिए उस ने अपने कई सगेसंबंधियों और रिश्तेदारों को फोन कर के अपनी स्थिति बताई और उन से पैसे मांगे लेकिन किसी ने भी उस की सहायता करने के बजाए कोई न कोई बहाना बना दिया. राजेश बहुत परेशान हो गया था. ऐसी हालत में उस की समझ मेें नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.
चारों ओर से हताश हो चुके राजेश के कानों में तीमारदारों के शब्द गूंज रहे थे कि बच्ची जिंदा नहीं बचेगी और अगर बच भी गई तो विकलांग रहेगी. निराशा और हताशा के दौर से गुजर रहे राजेश ने सोचा कि जब बच्ची पूरी जिंदगी विकलांग रहेगी तो इस की जान बचाने से क्या फायदा? इस से अच्छा तो यही है कि ये मर जाए.
इस के अलावा उस के मन में एक बात यह भी घूम रही थी कि यदि बच्ची नहीं मरी तो वह उस की वजह से पूरी जिंदगी परेशान रहेगा. लिहाजा उस ने बेटी को खत्म करने की सोची. इस बारे में उस ने अपने साले दिनेश से बात की तो उस ने भी जीजा की हां में हां मिलाते हुए 6 दिन की बच्ची को खत्म करने को कहा.
दोनों ने बच्ची को मारने का फैसला तो कर लिया लेकिन अपने हाथों से दोनों में से किसी की भी उस का गला दबाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर उन्होंने तय किया कि बच्ची को जिंदा ही गड्ढे में दफना देंगे और जब सुनीता पूछेगी तो कह देंगे कि बच्ची की मौत हो गई थी और उसे दफना आए हैं.
गड्ढा खोदने के लिए उन के पास कोई चीज नहीं थी इसलिए वह फावड़ा मांगने के लिए गुरेठा गांव पहुंचे.
ऐसी हालत में गांव वालों ने उन की सहायता करना मुनासिब समझा और उन के साथ गांगन नदी के किनारे उस जगह पर पहुंच गए जहां लोगों का अंतिम संस्कार किया जाता था.
उस की नन्हीं सी जान की आंखें ठीक से खुली भी नहीं थीं. दुनियादारी से तो उसे कोई मतलब भी नहीं था. मां की गोद से पिता के मजबूत हाथों में वह इसलिए आई थी कि वह उस का इलाज कराएंगे. लेकिन उसे क्या पता था कि कन्यादान करने वाले हाथ ही उसे जिंदा दफनाने के लिए आगे बढ़ेंगे.
लेकिन जैसे ही उसे गड्ढे में ठंडी रेत पर लिटाया गया वह हाथपैर चलाते हुए जोरजोर से रोने लगी. जैसे वह रोतेरोते अपने जन्मदाता से पूछ रही हो कि मेरा कुसूर क्या है. मुझे मत मारो. एक दिन मैं ही तुम्हारा सहारा बनूंगी और घर में उजियारा फैलाऊंगी. लेकिन उस समय पिता की संवेदनशीलता नदारद हो चुकी थी.
अचानक बच्ची की आवाज सुन कर राजेश और दिनेश घबरा गए. वे सोचने लगे कि काश ये 2 मिनट और न रोती तो…
बहरहाल, उस की आवाज सुन कर गांव वाले चौंक गए और उन्होंने पुलिस बुला ली. दोनों से पूछताछ के बाद पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश कर के जेल भेज दिया. पुलिस ने उस बच्ची को तीर्थांकर महावीर यूनिवर्सिटी के मैडिकल कालेज में भरती करवा दिया था. वहां उसे इनक्यूबेटर में रख दिया गया था. उस की हालत में भी सुधार होने लगा था.
उधर सुनीता को इस बात का पता नहीं था कि उस ने जिस बच्चे को जन्म दिया, उस की हत्या की कोशिश करने वाला उस का पति जेल में है.
इलाके के लोगों को जब एक पिता के यमराज बनने की जानकारी हुई तो लोग बच्ची की लंबी उम्र के लिए दुआएं करने लगे. बच्ची के इलाज के लिए कई लोगों ने अस्पताल में पैसे भी जमा कराए लेकिन एक सप्ताह बाद ही उस बच्ची ने अस्पताल में दम तोड़ दिया.
वैसे यहां एक बात बताना जरूरी है कि राजेश की नीयत बेटी की हत्या करने की नहीं थी बल्कि वह तो उस की सुरक्षा के लिए ही मैडिकल कालेज लाया था और मैडिकल कालेज के डाक्टर के कहने पर वह बेटी को ले कर कई अस्पतालों में घूमा भी. उस की मजबूरी यह थी कि इलाज के लिए उस के पास पैसे नहीं थे और जिन संबंधियों और रिश्तेदारों से उस ने मदद की गुहार लगाई, उन्होंने भी मुंह मोड़ लिया था, जिस से वह निराश और हताश हो चुका था.
अस्पताल के वार्ड में मरीजों के तीमारदारों ने बच्ची के बारे में गलत धारणाएं राजेश के मन में भर दी थीं. इन्हीं धारणाओं ने उसे यमराज बनने के लिए मजबूर किया. इन्हीं बातों ने उस की संवेदनशीलता को हर लिया था. कहते हैं कि मां का दूसरा रूप मामा होता है लेकिन उस समय दिनेश का दिल भी नहीं पसीजा था. वह भी कंस मामा बन गया था.
पिता से यमराज बनने के हालात राजेश के सामने चाहे जो भी रहे हों लेकिन इस में अकेला वही दोषी नहीं है. इस में दोष उन लोगों का भी है जिन्होंने उसे इस रास्ते पर जाने के लिए मजबूर किया. वह इतना संवेदनहीन हो गया था कि जीवित बेटी को कब्र में रखते समय उस के हाथ तक नहीं कांपे.
बेटियों पर खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है. बेटे की चाहत में तमाम लोग उन्हें कोख में ही खत्म करा देते हैं.
हम भले ही 21वीं सदी में पहुंचने की बात कर रहे हों लेकिन सोच अभी भी वही पुरानी है तभी तो भ्रूण हत्याओं में कमी नहीं आ रही. इस का उदाहरण यह है कि जहां सन 1990 में प्रति 1000 पुरुषों के अनुपात में 906 महिलाएं थीं, सन 2005 में इतने ही पुरुषों के अनुपात में केवल 836 महिलाएं रह गई थीं. बात 2014 की करें तो अब यह आंकड़ा 1000 पुरुषों पर 940 स्त्रियों का है. कह सकते हैं कि लोगों में काफी हद तक जागृति आई है और भ्रूण हत्याओं का ग्राफ गिरा है. यह खुशी की बात है. लेकिन इस मामले को देख कर लगता है कि हमें अभी भी पुरुष की सोच को बदलने की जरूरत है.
—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित