एक समय था जब देशी घी गरम किया जाता था या बनाया जाता था तो आसपास के तीन चार घरों तक उसकी महक फैल जाती थी। इतनी सुंदर महक होती थी कि पूरा मन मस्तिष्क सब गमगमा जाते थे। जिस पात्र में घी रखा जाता था, मात्र वही खुल जाए तब भी आसपास के वातावरण में घी की सुंदर महक फैल जाती थी। लेकिन आज कितने भी अच्छे ब्रांड का घी लाओ, कोई महक नहीं। यहाँ तक कि उसमें नाक भी घुसा लो तब भी वह महक नहीं मिलती जो आज के 20 से 30 वर्ष पहले मिलती थी।
कितना मिलावट हम खाते हैं, यह सोचने वाली बात है। गाँवों में भी कमोबेश यही स्थिति हो गयी है, शुद्ध घी बनाने पर भी वह महक नहीं मिल पाती जो पहले होती थी। कारण एकमात्र यही है कि पहले गायों को चराया जाता था जो विभिन्न प्रकार की वनस्पति ग्रहण करती थी, लेकिन आज केमिकल युक्त खरी खाती है। गाय भैस जितना भी वनस्पति या औषधि खाती या चरती थी वह सब दूध में एक विशेष प्रकार की ऊर्जा बन कर व्याप्त हो जाती थी पूरा दूध ही औषधि युक्त होता था।
उस समय दूध भी सुई घोंप कर जबरदस्ती नहीं निकाला जाता था दूध
लेकिन आज ठीक इसके विपरीत है अब तो दूध में कोई औषधीय गुण ही नहीं बचा जबरदस्ती निकाले हुए से पोषित वनस्पतियों से बने दूध का हश्र धीरे धीरे स्लो प्वाइजन में बदलता जा रहा है। आजकल तो दही तक केमिकल डालकर बनाया जाता है जो पहले जामन से बनाया जाता था जो बिल्कुल organic और natural पद्धति से बनता था।
धनिया, पुदीना अगर घर में आ जाता था तो पूरा घर महकता था। चने का साग इतना खट्टा होता था कि चटकारे लगा कर खाया जाता था लेकिन अब ......बहुत दुख होता है कि हम कहाँ से कहाँ आ गए और हैरानी की बात यह है कि इसी को हम क्रमिक विकास और आधुनिकता का नाम देते हैं। हवा, पानी, जल, नदी, झरना, वनस्पति, आकाश, मिटी इत्यादि कोई एक भी ऐसा तत्व बता दे जिसको हमने ज़हर न बना दिया हो। हमने विनाश का दरवाजा स्वयं खोल दिया है लेकिन यही तथाकथित विकास है और आधुनिकता की सीढ़ी है। पछतायेगा पछतायेगा, फिर गया समय नहीं आएगा। रिपोर्ट-राजेश शिवहरे 151168597