कल तक था जो आदर्श पुरुष जिसकी वाणी थी ओजभरी, सामाजिक थी जिसकी चिंतन, चेहरे पर मुस्कान भरी लेखनी थी जो वक्त बदल दे, जीवन के हर रंग बदल दे प्रेम की गठरी भरी हुई थी जो छलक छलक जाया करती थी, नाम कमाया और दौलत भी कमाई, आकर्षण के गुण भी कमायी , किसको पता था उसके अन्दर थे कितने रंग भरे कुछ थे औरों के खातिर, कुछ थे अपनों के खातिर ! चेहरा पर कितना चेहरा था दिल पर न कोई भी पहरा था, जिस पर - तिस पर जाने कहाँ किस किस पर लूट जाया करता था , सोलह से साठ थी जिसकी चाहत गली से लेकर महलों तक थी जिसकी मंजिल !
लोगों से सुना था पचपन में बचपन की बातें पर साठ से उपर वाला था वो पर यही इश्क, अपनों को अपने से दूर करता है, अपनी ही वीवी बच्चों पर जुल्म सितम जब ढाता है , खाना खुराक भी न देकर प्रेमिका से तिरस्कार कराता है, फिर लोग उसे पागल आवारा कहते है , कल तक था जो राम आज रावण कहलाने लगता है ! (रचनाकार - डॉ0 राजेंद्र यादव)