सुप्रीम कोर्ट यह तय करने जा रहा है कि वह तलाक, भरण पोषण, उत्तराधिकार और गोद लेने के नियमों के साथ विवाह की आयु सभी के लिए एकसमान करने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर सकता है या नहीं? पता नहीं वह किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन यह वह विचार है, जिसे अमल में लाने का समय आ गया है। सच तो यह है कि इस विचार को अब तक क्रियान्वित कर दिया जाना चाहिए था। यदि इस विचार पर अमल होता है तो एक तरह से समान नागरिक संहिता के लक्ष्य को हासिल कर लिया जाएगा। इस लक्ष्य की ओर बढ़ना केवल इसलिए आवश्यक नहीं है, क्योंकि यह समय की मांग है, बल्कि इसलिए भी है कि संविधान निर्माताओं ने ऐसी ही अपेक्षा व्यक्त की थी। दुर्भाग्य से इस दिशा में किसी भी केंद्र सरकार ने कोई ठोस पहल नहीं की और वह भी तब जब गोवा में यह संहिता लागू है।फिलहाल उत्तराखंड और गुजरात की सरकारें समान नागरिक संहिता बनाने के लिए प्रयासरत हैं। उनकी इस पहल का विरोध भी हो रहा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस विरोध को खारिज कर एक तरह से इसकी अनुमति दे दी कि राज्य सरकारें चाहें तो समान नागरिक संहिता का निर्माण कर सकती हैं। कहना कठिन है कि उत्तराखंड और गुजरात की सरकारें समान नागरिक संहिता की दिशा में जो प्रयास कर रही हैं, उसमें कब तक सफल होंगी, लेकिन आवश्यकता तो इसकी है कि ऐसी पहल केंद्र सरकार करे। क्या वह इस दिशा में सक्रिय है?
इस प्रश्न का उत्तर देना इसलिए कठिन है, क्योंकि केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की ओर से इतना भर कहा गया है कि 22वां विधि आयोग इस विषय यानी समान नागरिक संहिता पर विचार कर सकता है। इस विषय पर 21वां विधि आयोग विचार कर रहा था, लेकिन उसके किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले ही उसका कार्यकाल समाप्त हो गया। आशा की जा रही है कि नया विधि आयोग पुराने आयोग के काम को आगे बढ़ाएगा। यह काम न केवल आगे बढ़ना चाहिए, बल्कि समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा तैयार होना चाहिए, ताकि देश की जनता यह जान-समझ सके कि इस संहिता के माध्यम से क्या परिवर्तन होने वाले हैं और वे उसके लिए कितने लाभकारी होंगे। ये परिवर्तन वैसे तो सभी के लिए लाभकारी होंगे, लेकिन सबसे अधिक लाभ महिलाओं और बच्चों को होगा। मत-मजहब आधारित रीति-रिवाजों की सबसे अधिक मार उन पर ही पड़ती है, लेकिन इस पर गौर करें कि समान नागरिक संहिता को लेकर की जाने वाली किसी भी पहल का विरोध करने वालों में आम तौर पर पुरुष ही होते हैं।
जब भी कहीं से समान नागरिक संहिता के पक्ष में आवाज उठती है, ओवैसी जैसे कई चेहरे और मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड सरीखे कुछ संगठन अपना विरोध दर्ज कराने के लिए आगे आ जाते हैं। अभी पिछले सप्ताह मिजोरम विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश कर कहा गया कि यह सदन देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के किसी भी कदम का विरोध करने का संकल्प लेता है। इसके पहले मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की ओर से कहा गया था कि समान नागरिक संहिता लागू करना गैर-संवैधानिक कदम होगा। यह हास्यास्पद है, क्योंकि संविधान में ही यह कहा गया है कि राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एकसमान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा। स्पष्ट है कि जो लोग संविधान की आड़ लेकर समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं, वे न केवल झूठ का सहारा लेते हैं, बल्कि संविधान में लिखित इस मूल कर्तव्य की अनदेखी करते हैं कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन और उसके आदर्शों का आदर करे।
यह ध्यान रखा जाए तो बेहतर कि समान नागरिक संहिता संविधान का आदर्श है। विडंबना यह है कि जैसे हमारा औसत राजनीतिक नेतृत्व इसकी अनदेखी करना पसंद करता है कि संविधान के नीति निदेशक तत्व क्या कहते हैं, उसी तरह औसत नागरिक इससे परिचित नहीं कि संविधान में वर्णित मूल कर्तव्य क्या हैं? मूल कर्तव्यों में यह भी शामिल है कि देश के नागरिक पंथ, भाषा, प्रदेश या वर्ग आधारित भेदभाव से परे हों और ऐसी प्रथाओं का त्याग करें, जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं। समान नागरिक संहिता के विरोधी यह अच्छी तरह जानते हैं कि रीति-रिवाजों या पर्सनल ला कानूनों के तहत ऐसी प्रथाएं जारी हैं, जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं। इसके बाद भी वे अपने संकीर्ण हितों को साधने के लिए समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं। ज्यादातर राजनीतिक दल वोट बैंक के चलते ऐसे लोगों और संगठनों का साथ देते हैं।
इस पर आश्चर्य नहीं कि अधिकांश दल समान नागरिक संहिता का विरोध करना पसंद करते हैं और कपिल सिब्बल जैसे नेता एवं वकील सुप्रीम कोर्ट में इस संहिता के विरोध में आवाज उठाने वालों की पैरवी करने में आगे रहते हैं। कपिल सिब्बल तीन तलाक खत्म करने की मांग करने वालों के भी विरुद्ध खड़े थे और उनके भी विरुद्ध खड़े हैं जो तलाक, भरण पोषण, उत्तराधिकार और गोद लेने के नियमों के साथ विवाह की आयु सभी के लिए एकसमान करने की मांग कर रहे हैं। इस मांग वाली याचिकाओं की सुनवाई कर रहा सुप्रीम कोर्ट चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, केंद्र सरकार को अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने यानी समान नागरिक संहिता का निर्माण करने में और देरी नहीं करनी चाहिए। यह अच्छी बात है कि कुछ राज्य सरकारें इस दिशा में पहल कर रही हैं, लेकिन और भी अच्छा होगा कि केंद्र सरकार इस काम को अपने हाथ में ले।