यूक्रेन पर रूस के हमले को साल भर पूरा हो गया। यह द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत बने वैश्विक ढांचे की हमारी समझ से जुड़ा एक अहम पड़ाव है। आरंभ में लग रहा था कि यह युद्ध कुछ ही दिनों की बात है, क्योंकि रूस और यूक्रेन की सैन्य शक्ति में कोई बराबरी नहीं थी, लेकिन इस युद्ध का दूसरे वर्ष में खिंचना यही दर्शाता है कि रूसी सेना अपने अतीत की दुर्बल छाया मात्र बनकर रह गई है। यूक्रेनवासी जिस तरह रोज रूस के विरुद्ध खड़े हो रहे हैं, वह यही स्मरण कराता है कि रणभूमि में मिलने वाली सफलता केवल विशुद्ध शक्ति एवं बल पर ही निर्भर नहीं करती। युद्ध में अपने संसाधनों का प्रभावी उपयोग अधिक मायने रखता है। रूस की कमजोरी कई स्तरों पर उजागर हुई है। इसके साथ ही यूक्रेन संभवत: पश्चिम और रूस के बीच संघर्ष के आखिरी अखाड़े के रूप में उभरा है कि शीत युद्ध के उपरांत यूरेशियाई सुरक्षा ढांचे को किस प्रकार आकार दिया जाए। अब यह एक ऐसे युद्ध में बदल गया है, जिसे न तो रूस जीत सकता है और न यूक्रेन उसमें परास्त हो सकता है। अब यह युद्ध पश्चिम और पुतिन के बीच अहं और इच्छाशक्ति की लड़ाई बनकर रह गया है।
युद्ध के साल भर पूरा होने से ठीक पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यूक्रेन का दौरा किया। राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार अचानक यूक्रेन पहुंचे बाइडन ने यह दोहराया कि ‘यूक्रेन के लोकतंत्र, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए’ अमेरिका पूरी तरह प्रतिबद्ध है। इसी के साथ उन्होंने मास्को को संदेश भी दिया कि खतरनाक दौर में पहुंचे टकराव के बीच वाशिंगटन की पीछे हटने की कोई मंशा नहीं। असल में यूक्रेन संकट ने ट्रांस-अटलांटिक साझेदारी और नाटो जैसे उन ध्रुवों को नए तेवर दिए हैं, जो अपनी चमक खो रहे थे। हालांकि म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस के दौरान युद्ध समाप्त कर वार्ता आरंभ करने के पक्ष में कुछ प्रदर्शन हुए, लेकिन यूरोपीय नीति-नियंताओं ने यही दोहराया कि वे हथियार निर्माण का दायरा बढ़ाकर यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति जारी रखेंगे।
नाटो के महासचिव जेंस स्टोलेनबर्ग के अनुसार यूक्रेन बड़ी तेज गति से उनके हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। दिलचस्प है कि जर्मनी ने ही यूरोप को तेजी से हथियार आपूर्ति की मांग करने के साथ ही नाटो सहयोगियों से रक्षा पर जीडीपी के दो प्रतिशत के बराबर लक्ष्य पर सहमति बनाने का आह्वान किया था। इस बीच रूसी सीमाओं तक नाटो की पहुंच को लेकर पुतिन के विरोध पर उनके हमले ने इसके विपरीत ही काम किया। इससे स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों का झुकाव भी नाटो की ओर हुआ है, जो दशकों तक तटस्थ बने रहे। यूक्रेन युद्ध से पहले ही उथल-पुथल से गुजर रहे वैश्विक शक्ति संतुलन की स्थिति चीन-रूस धुरी से और ध्रुवीकृत हो गई है। अमेरिका और यूरोप दोनों ने चीन को चेताया है कि यदि उसने रूस को किसी तरह की सैन्य मदद पहुंचाई तो इसके विध्वंसक नतीजे होंगे। चीन ने अभी तक रूस का समर्थन जरूर किया है, लेकिन उसे किसी प्रकार की मारक क्षमता प्रदान करने वाली मदद उपलब्ध नहीं कराई है। दूसरी ओर यूक्रेन को पश्चिम से अत्याधुनिक टैंक और हथियार मिल रहे हैं। ऐसे में चीन का जरा सा भी सामरिक सहयोग रूसी हमलों की क्षमताओं को बढ़ाने के साथ ही रणभूमि में टिके रहने की उसकी क्षमताओं को ही बढ़ाएगा। यदि पश्चिम इन दोनों देशों की धुरी को तोड़ने के लिए आगे नहीं आएगा तो उनके रिश्तों की यह कड़ी मजबूत होती जाएगी।
बीजिंग में यह माहौल बनाने की कोशिश हो रही है कि यूरेशिया में बढ़ते हुए टकराव से वे आजिज आ गए हैं और शांति एवं किसी सहमति के स्वरों की पैरवी सुनाई पड़ रही है। हालांकि उसके ऐसे स्वरों में आलोचना के सुर भी हैं कि ‘कुछ ताकतें’ इस युद्ध को लंबा खींचना चाहती हैं। बीजिंग-मास्को साझेदारी के पीछे रणनीतिक पहलू प्रत्यक्ष दिखते हैं जिनके जल्द ही किसी तार्किक परिणति पर पहुंचने के आसार हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की भी चीन को आगाह कर चुके हैं इस युद्ध में रूस को उसकी मदद से विश्व युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इस युद्ध में चीन के प्रवेश से टकराव केवल यूरेशियाई युद्ध के रूप में ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसके हिंद-प्रशांत क्षेत्र तक फैलने की आशंका होगी।
महाशक्तियों के बीच संघर्ष जहां इस दौर के एक प्रमुख पहलू के रूप में उभरा है, वहीं यूक्रेन युद्ध से उपजे उन दुष्प्रभावों की अनदेखा किया जा रहा है, जिनसे दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जूझ रहा है। इस युद्ध के कारण खानपान, ऊर्जा और आर्थिक संकट ने पूरी दुनिया को त्रस्त किया है। बड़ी शक्तियों के निर्णायक रणनीतिक लाभ की चाह ने विकासशील देशों में अस्तित्व के संकट को दिन-प्रतिदिन और बढ़ा दिया है। हमारे पड़ोस में ही श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान और यहां तक कि बांग्लादेश की नाजुक होती स्थिति यही दर्शाती है कि दुनिया ग्लोबल साउथ के समक्ष उत्पन्न समस्याओं का प्रभावी समाधान उपलब्ध कराने में नाकाम रही है।
अब जब यूक्रेन युद्ध अपने दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहा है तो विश्व एक संकट के मुहाने पर खड़ा दिखाई पड़ता है। इस समय वैश्विक नेतृत्व नदारद दिख रहा है और बहुपक्षीय ढांचे की अक्षमताएं भी उजागर हो रही हैं। हम बड़ी शक्तियों के रणनीतिक समीकरणों को आकार देने में हार्ड पावर का पुन: उभार होता देख रहे हैं। साथ ही यह भी देख रहे हैं कि युद्धों का चरित्र और स्वरूप तकनीकी पहलुओं के आधार पर किस प्रकार परिवर्तित होकर रणभूमियों को बुनियादी रूप से नया आकार दे रहा है। जो भी हो, साल भर की उथल-पुथल के बाद भी यूक्रेन में शांति के कोई संकेत नहीं दिखते। यह स्थिति यही दर्शाती है तमाम उदारवादी विरोध-प्रदर्शनों के बावजूद हिंसा वैश्विक राजनीतिक ढांचे के मूल में निंरतर रूप से बनी हुई है और हाल-फिलहाल वह इस केंद्र से ओझल होती भी नहीं दिख रही।
