दर्शन philosophy पर प्रबन्ध प्रस्तुत किया हूँ ।“दर्शन”सम्यक् प्रकार से देखने को भी दर्शन कहते हैं, पर देखने के तरीक़े भिन्न-भिन्न तरह के होते हैं।
वैद्य के द्वारा रोगी को देखने का ढंग सामान्य व्यक्ति से भिन्न होता है।
कतिपय लोगों ने देखा शास्त्रों को, तो बताये कि ब्रह्म { श्रीभगवान् } निश्चय ही हैं, उनके मत को आस्तिक दर्शन कहते हैं, जबकि जिन लोगों ने केवल तर्क की कसौटी पर ब्रह्म को कसने की कोशिश की, पर उन लोगों को कुछ भी दिखाई ही न पड़ा।
वे सभी लोग केवल शब्दाडम्बर में पड़े रहे, उनके मत को नास्तिक दर्शन कहते हैं।
दर्शन शब्द को व्याकरण के सूत्रों से बनाकर देखते हैं, क्या अर्थ निकलता है ? सामान्यतया विचार करने पर
दर्शन शब्द दृश धातु ‘करणाधिकरणयोश्च’ सूत्र से करण के अर्थ में ल्युट्-प्रत्यय करके ‘ युवोर्नाकौ’ सूत्र से यु का अन करने से बना है जिसका अर्थ है,देखने का साधन।
आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शनों में आस्तिक दर्शन भी दो प्रकार का है – शास्त्रप्रमाणप्रधान दर्शन और तर्कप्रधान दर्शन।
अब अपने सबसे मान्य वेदान्त दर्शन पर विचार करते हैं।
वेदों में प्रधानरूप से दो काण्ड हैं- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड।
कर्मकाण्ड भाग के अर्थ का विचार पूर्वमीमांसा में किया जाता है, किन्तु ज्ञानकाण्ड की श्रुतियों का निर्णय उत्तरमीमांसा या शारीरकमीमांसा में किया जाता है। वेदों के प्रत्येक शाखाओं में अन्तिम अध्याय के रूप में एक- एक उपनिषत् संगृहीत है। उपनिषत् को ही वेदान्त कहते हैं। उप पूर्वक षद्ल़ृ धातु से क्विप् प्रत्यय करके उपनिषत् शब्द बनता है।
उपनिषदों के अर्थों का निर्णायक होने के कारण ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भगवद्गीता को भी वेदान्त कहा जाता है।
आस्तिक दर्शनों में प्रख्यात है –
१. अद्वैतवाद २. विशिष्टाद्वैतवाद ३. द्वैतवाद ४. द्वैताद्वैतवाद ५. शुद्धाद्वैतवाद ६. अचिन्त्यभेदाभेदवाद आदि, अस्तु।
ज्ञातव्य है कि विशिष्टाद्वैतवाद को परिणामवाद भी कहा जाता है।
भगवान् रामानुजाचार्य जी विशिष्टाद्वैतवाद के आचार्य हैं, इन्होनें माना है कि स्थूल, सूक्ष्म, चेतन एवं अचेतन विशिष्ट ब्रह्म ही ईश्वर है।
जगत् और जीव ब्रह्म का शरीर है ; ब्रह्म सगुण और सविशेष है।
ब्रह्म की शक्ति माया है। ब्रह्म में सजातीय-विजातीय भेद न होकर केवल स्वगत भेद है।
ब्रह्म पूर्ण है, जबकि जीव अपूर्ण है।
ब्रह्म ईश्वर है, जबकि जीव उसका दास है।
ईश्वर कारण हैं तथा जीव कार्य है।
ईश्वर और जीव दोनों स्वयं प्रकाश हैं, पर ईश्वर सृष्टिकर्ता , नियन्ता और सर्वान्तर्यामी हैं तथा अपार कारुण्य, सौन्दर्य, सौशील्य, वात्सल्य, औदार्य एवं ऐश्वर्य के महान् समुद्र हैं।
परमेश्वर श्रीमन्नारायण ने जीव को बहुत कुछ दिया है, पर सृष्टि करने का सृष्टि का नियन्त्रण करने का तथा जीव को मुक्ति प्रदान करने का अधिकार नहीं दिया है।
जो जीव महापुरुष हो जाता है, उसे भी भगवान् कहा जाता है, जैसे भगवान् शुकदेव, भगवान् शंकराचार्य, भगवान् रामानुजाचार्य आदि।
ये महापुरुष भगवान् तो हैं, पर भगवान् श्रीमन्नारायण की तरह नहीं हैं।
मुक्ति का साधन ज्ञान न होकर भक्ति है।
भक्ति का सर्वोत्तम स्वरूप प्रपत्ति या आत्मसमर्पण कहलाता है।
भगवान् श्रीमन्नारायण के श्रीचरणों में प्रपत्ति करने वाले प्रपन्नों को श्रीभगवान् मुक्त कर देते हैं।
भगवान् शंकराचार्य ने भी पूर्णतया यह माना है कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, लय करने का सामर्थ्य केवल परमेश्वर नारायण को ही है।
महापुरुषों के पास अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर जगद्व्यापार की सिद्धि प्राप्त नहीं होती है।
॥जगद्व्यापारवर्जम्॥
{ ब्रह्मसूत्र ४।४।१७ }
इस सूत्र के भाष्य में श्रीशंकराचार्य जी लिखते हैं –
जगदुत्पत्त्यादिव्यापारं वर्जयित्वा अन्यदणिमाद्यात्मकमैश्वर्यं मुक्तानां भवितुमर्हति, जगद्व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैव ईश्वरस्य।
मुझे तो लगता है चाहे कोई भी दर्शन या वाद क्यों न हो, किन्तु सिद्धान्त: उन दर्शनों या दार्शनिकों को ये मानना ही पड़ा है कि ज्ञानी, भक्त, योगी या जीवन्मुक्त महात्मा , सूरीजन कभी भी भगवान् श्रीमन्नारायण की तुलना में नहीं आ सकते।
जगत् की सृष्टि तथा उसका सम्यक्तया पालन और सृष्टि का लय एवं जीवों को परमपद केवल भगवान् श्रीमन्नारायण के द्वारा ही सम्पादित होता है,उसे कोई जीवन्मुक्त महापुरुष सम्पादित नहीं कर सकता।
सर्वेश्वरत्व, सर्वशेषित्व, सर्वकर्माराध्यत्व,सर्वकार्योत्पादकत्व और चिदचिच्छरीरत्व केवल भगवान् श्रीमन्नारायण में ही है ; उनकी प्राप्ति केवल उनकी कृपा से ही होती है, इसीलिये तो सिद्धान्त है कि सूक्ष्मदर्शी अच्छी तरह जानते हैं कि भगवान् श्रीनारायण को प्राप्त करने के लिए केवल श्रीनारायण की अहैतुकी कृपा ही उपाय है। अग्निहोत्री वैदिक देवेन्द्र चतुर्वेदी काशी उ प्र भारत।।