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भारत का स्त्री विमर्श
  • 151042177 - CHANDRABHUSHAN PANDEY 0



फास्ट न्यूज इंडिया देवरिया से जिला संवाददाता चन्द्रभूषण पाण्डेय की रिपोर्ट यह आलेख,प्रकाशित, मौलिक है शिवानी मिश्रा शोध अध्येता---वाणिज्य संकाय परिसर, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर उत्तर प्रदेश, स्त्री विमर्श और भारतीय समाज परम्परा चिंतन मनन का अत्यंत महत्वपूर्ण विषय रहा है। स्त्री विमर्श और भारतीय समाज परम्परा वृहद, विस्तृत और आवश्यक विचारणीय चर्चा का सामाजिक विषय है। भारतीय समाज सदैव से ही आदर्श समाज की श्रेणी में गिना जाता है। भारतीय समाज की परम्परा अत्यंत प्राचीन एवं समृद्धशाली है। भारतीय समाज की परम्परा बहुआयामी है जिसमे स्त्री विमर्श और भारतीय समाज परम्परा मान्यताओं, रीति रिवाजों, नियमों, प्रथाओं और विभिन्न भाषाओं का समग्र रूप विद्यमान है। भारतीय समाज की परम्परा का केंद्र बिन्दु भारतीय परिवार हैं और परिवार की महत्वपूर्ण कड़ी स्त्री विमर्श और भारतीय समाज परम्परा के अंतर्गत हम भारतीय समाज परंपरा में स्त्री के महत्व, समस्या एवं संघर्ष के विषय में विचार-विमर्श व चिंतन-मनन करते हैं। समाजिक सरोकारों से लैस बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं के बीच लंबे समय से यह लगातार चर्चा और चिंता का विषय रहा है कि हिंदी में स्त्री प्रश्न पर मौलिक लेखन आज भी काफी कम मात्रा में मौजूद है। स्त्री विमर्श की सैद्धांतिक अवधारणाओं एवं साहित्य में प्रचलित स्त्री विमर्श की प्रस्थापनाओं की भिन्नता या एकांगीपन के संदर्भ में पहला प्रश्न यह उठता है कि हिंदी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श के मायने क्या हैं? साहित्य, जिसे कथा, कहानी, आलोचना, कविता इत्यादि मानवीय संवेदनाओं की वाहक विधा के रूप में देखा जाता है वह दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक तथा अन्य हाशिए के विमर्शों को किस रूप में चित्रित करता है? साहित्य अपने यर्थाथवादी होने के दावे के बावजूद क्या स्त्री विमर्श की मूल अवधारणाओं को रेखांकित कर उस पर आम जन के बीच किसी किस्म की संवेदना को विकसित कर पाने में सफल हो पाया है? स्त्री के प्रश्न हाशिए के नहीं बल्कि जीवन के केंद्रीय प्रश्न हैं। किंतु हिंदी साहित्य की मुख्यधारा जिसे वर्चस्वशाली पुरुष लेखन भी कहा जा सकता है, में स्त्री प्रश्नों अथवा स्त्री मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जाती रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री अथवा स्त्री प्रश्न सिरे से गायब हैं बल्कि यह है कि स्त्री की उपस्थिति या तो यौन वस्तु (Sexual object) के रूप में है या यदि वह संघर्ष भी कर रही हैं तो उसका संघर्ष बहुत हद तक पितृसत्तात्मक मनोसंरचना अख्तियार किए होता है संघर्ष करने वाली स्त्री की निर्मिति ही पितृसत्तात्मक होती है। साहित्य की पितृसत्तात्मक परंपरा में लगातार स्त्री प्रश्नों का हास होता क्यों दिख रहा है? क्या स्त्री विमर्श को देह केंद्रित विमर्श के समकक्ष रखकर स्त्री-विमर्श चलाने के दायित्वों का निर्वाह किया जा सकता है? यदि साहित्य का कोई सामाजिक दायित्व है तो हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री देह को बेचने व स्त्री को सेक्सुअल आब्जेक्ट अथवा मार्केट के उत्पाद के रूप में तब्दील कर दिए जाने की जो पूँजीवादी पितृसत्तात्मक बाजारवादी रणनीति काम कर रही है उस मानसिकता से यह मुक्त क्यों नहीं है? उसको पहचान कर उसके सक्रिय प्रतिरोध से ही वास्तविक स्त्री विमर्श संभव है। क्यों सत्तर के दशक में नवसामाजिक आंदोलन के रूप में समतामूलक समाज निर्माण के स्वप्न को लेकर उभरे स्त्रीवादी आंदोलनों की चेतना एवं उनके मुद्दों को जाने-अनजाने नजरअंदाज करने का प्रयास किया जा रहा है साहित्य में महिला लेखन के रूप में उपलब्ध विभिन्न कहानियों, कविताओं तथा आत्मकथाओं में स्त्री की दैहिक पीड़ा से परे जाकर उसकी वर्गीय, जातीय एवं लैंगिक पीड़ा का वास्तविक स्वरूप प्रतिबिंबित क्यों नहीं हो पा रहा है? स्त्री साहित्य के सवालों के मूल्यांकन के संदर्भ में भी हिंदी आलोचना में गैर-अकादमिक एवं उपेक्षापूर्ण रवैया क्यों मौजूद है। साठ के दशक में पुरुष वर्चस्ववाद की सामाजिक सत्ता और संस्कृति के विरुद्ध उठ खड़े हुए स्त्रियों के प्रबल आंदोलन को नारीवादी आंदोलन का नाम दिया गया। वस्तुतः नारीवादी आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन है जो स्त्री की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एंव दैहिक स्वतंत्रता का पक्षधर है। स्त्री मुक्ति अकेले स्त्री की मुक्ति का प्रश्न नहीं है बल्कि यह संपूर्ण मानवता की मुक्ति की अनिवार्य शर्त है। दरअसल यह अस्मिता की लड़ाई है इतिहास ने यह साबित भी किया है कि आधी आबादी की शिरकत के बगैर क्रांतियाँ सफल नहीं हो सकतीं भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में अपनी जातीय अस्मिता की पहचान और जनता के अधिकारों के माँग के साथ-साथ स्त्री मुक्ति का स्वप्न भी देखा जा रहा था। नव स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र ने महिला आंदोलनों को यह विश्वास भी दिलाया था कि बड़े उद्देश्यों की प्राप्ति के पश्चात स्त्री-पुरुष संबंध, लैंगिक श्रम विभाजन, आर्थिक हिंसा जैसे मुद्दे स्वतः ही हल हो जाएँगे परंतु स्वतंत्रता के इतने वर्षो के बाद भी स्त्री-मूलक प्रश्न ज्यों के त्यों बने हुए हैं। औरत पर आर्थिक,सामाजिक यौन उत्पीड़न अपेक्षतया अधिक गहरे, व्यापक, निरंकुश और संगठित रूप से कायम है। स्त्री आंदोलनों को इन समस्त चुनौतियों से लड़कर ही अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना होगा। निश्चित रूप से इसका स्वरूप अन्य मुक्तिकामी आंदोलनों से किसी रूप में भिन्न नहीं है जो वर्गीय, जातीय, नस्लीय आधार पर समाज हो रही हिंसा एवं असमानता के प्रति संघर्षरत है तथा एक समतामूलक समाज निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं। स्त्रीवादी आंदोलनों की शैक्षणिक रणनीति के रूप में स्त्री अध्ययन एक अकादमिक अभिप्रयास है जो मानवता एवं जेंडर संवेदनशील समाज में विश्वास करता है। यह समाज के प्रत्येक तबके के अनुभवों को केंद्र में रखकर ज्ञान के प्रति नया दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है जो सत्तामूलक ज्ञान की रूढ़ सीमाओं को तोड़कर ज्ञान को उसके वृहद् रूप में प्रस्तुत करता है। विशेष तौर पर स्त्री विषयक मुद्दों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक पक्षों पर अपनी राय रखते हुए जेंडर समानता आधारित समाज के निर्माण की और अग्रसर है।

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