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भगवान् का ध्यान कैसे करेँ " ?
  • 151109233 - HEMANT CHOUDHARY 0



भगवान् का ध्यान कैसे करेँ " ? नारायण । ध्यान कैसे उस प्रभु का करेँ ? आईये थोड़ा विचार करे - भगवान् का ध्यान करे तो कहाँ करे ? हृदय मेँ भृकुटी मे भगवान का ध्यान करे तो भगवान का मुख किधर होना चाहिये ? हमारी इस तरफ या बाहर की ओर ? नारायण , एक फोटो आता है जिसके पिछे एक कथा भी है - श्रीपवनपुत्र श्रीहनुमन्त लाल जी एक दाने को दाँत से तोड़ कर फेकने लगे । माता श्रीसीता जी ने कहा – अरे ! यह मैँने कोई फल थोड़े ही दिया कि इसको हनुमान तु दाँतोँ से तोड़ रहा है , यह रत्नोँ का हार है , हार ! हनुमान इसे तोड़े नहीँ जाते । श्रीहनुमान कहते है - माते । मैँ तोड़कर यह देख रहा हूँ कि इसमेँ अन्दर श्रीराम हैँ , या नहीँ ? माते । नहीँ दिखे इसलिये फेँका । श्रीसीताजी पूछती है - श्रीराम इन सब मेँ बैठे है क्या ? होना चाहिये था । तो कहाँ है अब ? तो श्रीहनुमन्त ने हृदय फाड़कर दिखाया यह देखेँ , माते । मेरे हृदय मेँ बैठे हैँ । हृदय मेँ भगवान् को दिखाया । वहाँ भगवान् का मुख किस ओर है ? बाहर की ओर या अपनी ओर सर्वत्र फोटो मेँ बाहर की ओर ही दिखाया है । तब भगवान् का मुख बाहर की ओर होना चाहिये या भीतर की ओर प्रश्न सामने आया उत्तर है – " अभिध्यानात् " । आपके अभिमुख भगवान् का मुख होना चाहिये । " यष्टुर्ह्यभिमुखा देवा देवाभिमुखतो दिशः " । ऐसा तन्त्रशास्त्रोँ मेँ कहा है । पूजक ध्यायक के अभिमुख देव होना चाहिये । तब श्रीहनुमानजी के चित्र " पराङ्गमुख " क्योँ दिखाया है ? वात यह है कि वहाँ अभिमुख हो तो बाहर से दिखने वालोँ को पीठ दिखाई पड़ती । इसलिये या तो चित्रकारने अपनी सुविधा के अनुसार बर्हिमुख बना दिया या फिर हनुमानजी ने स्वयं ही भगवान को कहा होगा कि हे भगवान् जरा आप बाहर की ओर थोड़ी देर बैठे रहे जिससे माता सीता को विश्वास हो । चाहे जो भी हो , विधि तो संमुख पूजादि करते ही हैँ । संमुख मेँ द्वैत भाव होगा तो कौन सा भाव रखेँ ? दास्य , सख्य , वात्सल्य आदि कोई भी भाव रख सकते हैँ । उसमेँ धीरे - धीरे अव्याहत ऐश्वर्य ब्यापक स्वरूपादि दीखेगा , अनुभव मेँ आयेगा । इसके बाद का भाव है योजनात् । प्रथम पार्थक्य था । अब जोड़ दिया । जोड़ने पर उसी का अंग वह बन जायेगा जैसे भारत मेँ सिक्किम को जोड़ दिया तो सिक्कम भारत का अंग हो गया । पहले सैकड़ो रियासते थी । सबको भारत मेँ विलिन कर दिया तो सब भारत के अंग हो गये । अंशाशिभाव हो गया । पहले दास - होती है । और मुढोँ के प्रति दयाभाव और दुष्टोँ के प्रति उपेक्षा भाव भी दीखेगा । अंशाशिभाव तक पहुँचने पर भाव मेँ थोड़ा परिवर्तन हो जाता है । " मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्वहुमानयन् । ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ।। " नारायण !वह मन से सबको प्रणाम करता है । क्योकि जीव रूपी कला अंश से स्वयं भगवान् ही प्रविष्ट है ऐसा भाव आ जाता है । यही उस भाव की परिपक्वता की निशानी है। तृतीय मेँ फिर सभी ब्रह्मस्वरूप होने से वहाँ फिर स्तुति नमस्कारादि सभी समाप्त हो जाते हैँ । " ईशावास्यमिदं सर्वँ " सारा जगत् ईश्वर रूप ही हो गया । स्वयं भी ईश्वर रूप हो गया तो फिर नमस्कार्य नमस्कार स्वभाव रहता ही नहीँ । यही आत्मभावना ध्यान है । नारायण स्मृतिः

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