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एक दिन की प्यारी हिंदी, साल भर घनघोर उपेक्षा।
  • 151018477 - DEEPAK KUMAR SHARMA 0



14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा में यह निर्णय लिया था कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी। इसका मतलब है कि राजकीय कार्यों में हिन्दी को सर्वोपरि महत्व दिया जाएगा। वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर साल हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्व हिन्दी दिवस कब मनाया जाता है? आप में से अधिकांश का जवाब होगा 14 सितंबर। लेकिन नहीं।वास्तव में विश्व हिन्दी दिवस प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य है विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित‍ करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी के लिए अनूठे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। अब प्रश्न उठता है,10 जनवरी ही क्यों? विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। एक विचारणीय प्रश्न है-आज कितना प्रासंगिक है हिंदी दिवस मनाना, जरूरी है या फिर मजबूरी? सितंबर १४ वह तारीख है जब हर किसी को याद आती है हिंदी क्योंकि इसी दिन हिंदी दिवस मनाया जाता है।देश की आजादी के पश्चात १४ सितंबर, १९४९ को भारतीय संबिधान में हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और आज इस दिवस की अधिक प्रासंगिकता क्यों उभर रही है? जब हिंदी दिवस की प्रासंगिकता पर सवाल उठता है तो सबसे पहले तो यह बात उभरकर सामने आती है कि हमारे देश में दिन-प्रतिदिन हिंदी की उपेक्षा होती जा रही है, हिन्दी परअंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नही है जब हिन्दी हमारे अपने ही देश में विलुप्तता के कगार पर पहुंच जायेगी। जबकि हिन्दी राष्ट्रीयताकी प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करना हिन्दी दिवस कीप्राथमिकता होनी चाहिए। हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी त्वराता से राजनैतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी है, यही कारण है कि आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए।  हिन्दी, हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय भाषा होते हुए भी आज अपने ही देश में अपना अस्तित्व खोती जा रही है। भारत में आज अंग्रेजी को शीर्ष पर रखा जाता है और हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है। आज हिन्दी और हिन्दी दिवस (१४ सितंबर) एक औपचारिकता के रूप में बनकर रह गया है। सरकारी संस्थानों में, स्कूलों में सिर्फ एक दिन हिन्दी की बदहाली पर अच्छी चर्चा होती है। हर बार की तरह वही ताम-झाम वाली प्रक्रिया उसी बेशर्मी के साथ दोहराई जाती है और इस दिखावे में कोई भी विभाग, कार्यालय पीछे नहीं रहना चाहता है। कहीं 'हिन्दी दिवस' मनता है तो कहीं 'हिन्दी सप्ताह' तो कहीं 'हिन्दी पखवाड़ा'। भाषा के विद्वान,राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी, नौकरशाह और साहित्यकार आदि सभी बढ़ चढ़कर इन समारोह में शामिल होकर अपना मत रखते हैं। मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलनों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है।एक पर्व और त्यौहार की तरह सभी लोग इस दिवस को मनाने लगे हैं।कुछ सरकारी/गैर सरकारी संस्थाएं कुछ सरकारी सेवकों, समाज सेवियों,राजभाषा विभाग से जुड़े सभी प्रबुद्धजनों को प्रशस्ति पत्र देकर कृतज्ञ महसूस कराते हैं। कामकाज में हिन्दी को लाने के लिए उसे शत-प्रतिशत लागू करने की बात हर बार की तरह पूरे जोश-होश के साथ की जाती है।सभी लोग हिन्दी की दुर्दशा पर अपनी बात कहते है। हिन्दी की मौजूदा बदहाली के लिए कुछ हद तक हिन्दी को सम्मान, अधिकार दिलाने वाले राजनेता, शासन, बुद्धिजीवी,लेखक, पत्रकार सम्मिलित रूप से जिम्मेदारी लेते हैं। वास्तव में इन्ही लोगों ने हिन्दी के साथ छल किया है। राजनेताओं ने तो हमेशा इसके साथ सौतेला व्यवहार किया है। उन्होंने तो कभी सिद्धांत और व्यवहार के रूप में इसे लागू करने की कोशिश ही नहीं की। दो प्रधानमंत्रियों ने अपने दामन को और उजला करने के लिए दो दिन निर्धारित कर दिया है।एक ने संबिधान की दुहाई देकर हिन्दी दिवस की घोषणा14 सितंबर तो दूसरे ने अंतराष्ट्रीय हिंदी दिवस के लिए10 जनवरी कर दिया।ऐसी सूरत में लगने लगा है कि हिन्दी कभी हिन्दुस्तान की भाषा बन ही नहीं सकती। हिन्दी की बदहाली पर रोने वाले अधिकारियों, बुद्धिजीवियों,पत्रकारों, लेखकों का सारा अनौपचारिक कार्य अंग्रेजी में होता है।मजबूरी में ही वे हिन्दी में लिखने-पढ़ने या बोलने के लिए तैयार होते हैं। इस तरह वे हिन्दी की रोटी खाकर अंग्रेजी के महापाश में जकड़े रहते हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करेगी हिन्दी ? आज अंग्रेजी से प्रेम इतना अटूट हो गया है कि ये अब बच्चों की शिक्षा का माध्यम बन गई है। अंग्रेजी भाषा को सीखने के चक्कर में स्कूल-कॉलेज में हिन्दी के पीरियड में भी अंदर आने के लिए अपने टीचर से अंग्रेजी में अनुग्रह करके पूछते है कि 'मे आई कम इन सर'। इस तरह देखा जाए, तो शासक वर्ग और उसके आसपास मधुमक्खी की तरह मंड़राने वाले अंग्रेजी-प्रेमी पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपना अंग्रेजी प्रेम दर्शाते हैं। ऐसे में आमजन का अंग्रेजी के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। कुछ हद तक यह उनकी मजबूरी भी है, क्योंकि शासक वर्ग की नीतियां अंगेजी को बढ़ावा देने वाली है, तो ऐसे में भला हिन्दी अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करेगी। इस विषय पर महामंथन की आवश्कता है,न जाने कब अमृत रस निकले। पश्चिम बंगाल राज्य ब्यूरो चीफ दीपक शर्मा की रिपोर्ट (1018477)

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