बाराखाल मां दुर्गा मंदिर नीम के पेड़ से निकली मूर्
- 151109870 - RAJ KUMAR VERMA
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संत कबीर नगर। जनपद के मेहदावल तहसील क्षेत्र के अंतर्गत विकासखंड मेहदावल में स्थित ग्राम बाराखाल में स्थित मां दुर्गा की प्राचीन मंदिर का स्थानीय क्षेत्र में मान्यता का विशेष महत्व है। हिंदू मंदिर की रचना लगभग दस हजार वर्ष पूर्व हुई थी। उस काल में वैदिक ऋषि जंगल के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे। हालांकि लोकजीवन में मंदिरों का महत्व उतना नहीं था जितना आत्मचिंतन, मनन और शास्त्रार्थ का था। फिर भी आम जनता शिव और पार्वती के अलावा नगर, ग्राम और स्थान के देवी-देवताओं की प्रार्थना करते थे। देश में सबसे प्राचीन शक्तिपीठों और ज्योतिर्लिंगों को माना जाता है। बाराखाल गांव की देवी माँ हर श्रद्धालु की विनती सुनती हैं और उसकी फूटी किस्मत को संवारती है। मान्यता है कि श्रद्धा और विश्वास से बाराखाल मंदिर के देवी मां का सुमिरन करने वालों की हर विपदा दूर होती है। उन्हें मनोंवांछित फल की प्राप्ति होती है। मां के दरबार में चैत्र मास के नवरात्र में ही नहीं बल्कि सामान्य दिनों में भी स्थानीय क्षेत्र की जनता की भीड़ लगती है। मेंहदावल तहसील मुख्यालय से करीब तीन किलोमीटर दूर पर, बी एम सी टी मार्ग के सटे बाराखाल गांव के समीप पूर्व दिशा में बाराखाल दुर्गा माता का मंदिर स्थित है। मां का यह मंदिर लोगों की आस्था के प्रतीक का केंद्र है। दुर्गा मंदिर चैत्र नवरात्र में भक्तों की भीड़ से भरा रहता है। सामान्य दिनों में भी यहां भक्तों की भीड़ रहती है। समय समय पर पूजा अनुष्ठान के साथ मंदिर में धार्मिक आयोजन के प्रबंध भी किए जाते हैं। मुंडन संस्कव अन्य कार्यक्रम भी किया जाता है। सुबह-शाम शक्ति के उपासकों की भीड़ जुटती है। मान्यता है कि सच्चे दिल से यहां मांगी गई हर मुरादें पूरी होती है। नीम के पेड़ से प्रकट हुई थी मूर्ति। मां के इस पवित्र स्थान को लेकर क्षेत्र के लोगों का कहना है कि सैकड़ों वर्ष पहले यहां स्थित नीम के पेड़ को काटने के प्रयास के दौरान कुल्हाड़ी चलाने पर बार-बार वह फिसल जा रही थी। काफी प्रयास के बाद जब पेड़ पर कुल्हाड़ी चली तो खून के छींटे निकलने लगे। लोगों ने देखा कि एक मूर्ति पर कुल्हाड़ी लगने से छींटे निकल रहे थे। जिसे चमत्कार मानकर लोगों ने तभी से पूजा पाठ करना शुरू कर दिया। आज भी मंदिर के गर्भ गृह में कुल्हाड़ी लगी मूर्ति स्थापित है। तब से लेकर आराधना का सिलसिला जारी है।
काफी वर्षों से हो रही पूजा
मंदिर के पुजारी राम नरेश का कहना है कि बाराखाल की दुर्गा माता की कालांतर से ही पूजा व उपासना होती रही है। मान्यता है कि जो भक्त मां के दरबार में माथा टेकता है उसकी हर मुराद मां पूरी करती हैं। वैसे प्रत्येक सोमवार, मंगलवार व शुक्रवार को यहां भक्तों की भीड़ जुटती है।
इतिहास के पन्नों में कहा गया है कि प्राचीन काल मे मंदिर में सबसे पहले जानवरों की बलि की परंपरा हुआ करती थी बलि पक्षियों और बकरी की होती थी। भक्तों की मांग व उनके द्वारा संरक्षण की मांग में इन बलिदानों का चलन था, मगर अब इस सभ्यता में सरकार के हस्तक्षेप के बाद से ही मंदिर में अब पशु-बलि पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन यहां धार्मिक अनुष्ठानों की समाप्ति नहीं हुई है। अब भगवान को लाल धोती अर्पित करने की परंपरा है, भक्त महंगे उपहार, सोना-चांदी अपनी इच्छा व क्षमता अनुसार चढ़ाया जाता है। प्राचीनकाल में यक्ष, नाग, शिव, दुर्गा, भैरव, इंद्र और विष्णु की पूजा और प्रार्थना का प्रचलन था। रामायण काल में मंदिर होते थे इसके प्रमाण हैं। राम का काल आज से सात हजार दो सौ वर्ष पूर्व था अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व। हिन्दू मंदिरों को खासकर बौद्ध, चाणक्य और गुप्तकाल में भव्यता प्रदान की जाने लगी और जो प्राचीन मंदिर थे उनका पुन: निर्माण किया गया। ये सभी मंदिर ज्योतिष, वास्तु और धर्म के नियमों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। अधिकतर मंदिर कर्क रेखा या नक्षत्रों के ठीक ऊपर बनाए गए थे। उनमें से भी एक ही काल में बनाए गए सभी मंदिर एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे लेकिन आजकल के मंदिर तो पूजा-आरती के केंद्र हैं। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं ने जैन, बौद्ध और हिन्दू मंदिरों को बड़े पैमाने पर ध्वस्त कर दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान, ईरान, तिब्बत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, कंबोडिया आदि मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्रों में अब हिन्दू मंदिर नाममात्र के बचे हैं। अब ज्यादातर प्राचीन मंदिरों के बस खंडहर ही नजर आते हैं, जो सिर्फ पर्यटकों के देखने के लिए ही रह गए हैं। अधिकतर का तो अस्तित्व ही मिटा दिया गया है।