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आज की शुभ तिथि– श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७७ सो
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॥ सन्तवाणी ॥–श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज Monday, July 13, 2020 गीता का अनासक्ति योग आज की शुभ तिथि– श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७७ सोमवार गीता का अनासक्ति योग प्रश्न–कभी-कभी दूसरे को सिखाने के लिये सेवा लेनी पड़ती है, क्या यह ठीक है ? उत्तर–बालक आदि को सिखाने के लिये सेवा लेना वास्तव में सेवा करना ही है । लेने की क्रिया तो दीखती है, पर वास्तव में लिया नहीं है, प्रत्युत शिक्षा दी है । प्रश्न–सभी के शरीर अनित्य हैं, फिर उनकी सेवा क्यों की जाय ? उत्तर–अनित्य की सेवा करनेसे नित्य की प्राप्ति होती है । कारण कि अनित्य की सेवा करनेसे अनित्य की आसक्ति का त्याग हो जाता है और आसक्ति का त्याग होने पर नित्य की प्राप्ति हो जाती है । वास्तव में सेवा केवल अनित्य शरीर की नहीं होती, प्रत्युत शरीरी (शरीरवाले) की होती है । व्यवहार में जड़ चीज जड़ता (शरीर) तक ही पहुँचती है, चेतन तक नहीं; परन्तु सेवा लेने वाला अपने को शरीर मानता है, इसलिये वह सेवा चेतन की होती है–‘जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि’ (मानस, अयोध्या॰ १४२/१) । तात्पर्य है कि हम शरीर को अपना मानते हैं, इसलिये शरीर तक पहुँचने वाली चीज अपने तक पहुँचती है । भक्त तो सबको भगवान्‌ का ही स्वरूप मानकर उनकी सेवा करता है–‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (गीता १८/४६), ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत’ (मानस, किष्किन्धाकाण्ड ४) । भगवान्‌ में आत्मीयता होने से उसकी संसार में समता हो जाती है– तुलसी ममता राम सों समता सब संसार । राग न रोष न दोष दुख दस भए भव पार ॥ (दोहावली ९४) संसार में समता होने से आसक्ति मिट जाती है । यही अनासक्ति योग है । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! –‘जित देखूँ तित तूँ ’ पुस्तकसे ।। श्रीहरिः ।। at Monday, July 13, 2020

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